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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८११

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पन्द्रहवाँ अध्याय ८३१ यही बात नही है। इसीलिये वह अक्षर पुरुषसे उत्तम जरूर है । है तो वह इसीकी जाति-बिरादरीका। मगर उत्तम है । क्षरके साथ तो उसका कोई मुकाबिला हई नहीं है। वह तो इससे विपरीत है-लाख कोस दूर है । इसलिये कह दिया कि यह क्षरसे तो निराला हई, अलग हई, जुदा हई, भिन्न हई--“यस्मात्क्षरमतीत" । कितु अक्षरसे भी उत्तम है । इसीलिये पुरुषोत्तम कहा जाता है । जीवको, अक्षर पुरुषको भी यही बनना है। एतदर्थ उसकी मैल धोना जरूरी है, उसमे साबुन लगाना जरूरी है । मैल है क्षर या प्रकृतिका ससर्ग और साबुन लगाना है आत्म- ज्ञान । यही है हमारे सभी प्रयत्नोका और मानवजीवनका चरम लक्ष्य । पुरुषोत्तम हो जाना ही सब कुछ है । यही बात नीचेके दो श्लोकोमे कहके अध्याय पूरा कर दिया है। यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् । स सर्वविद्धजति मां सर्वभावेन भारत ॥१६॥ इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ । एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥२०॥ हे भारत, जो पूर्ण विवेकी मुझ पुरुषोत्तमको इस प्रकार जान जाता है वही सब पदार्थोका जानकार है और मुझे सम्पूर्ण जगत्के रूपमे ही भजता है। हे अनघ, मैने यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र बताया है। हे भारत, इसे ही जानने पर बुद्धिमान हो सकते है और कृतकृत्य भी ।१६।२०। इन श्लोकोमे और इनसे पहले भी जो आत्माके ही लिये 'अहम्', 'माम्' आदि बारबार आये है वे सचमुच ही अमूल्य है । ये शब्द आत्माको किस सुन्दर रूपमे खडा करते और उसे सम्पूर्ण ससारका रूप बना देते है, ब्रह्म रूप बना देते है, वासुदेव बना देते है ! इन्हे वलात् तोड-मरोडके साकार ईश्वर या कृष्णके मानीमे घसीटना कितनी बडी निर्दयता है !