पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८१२

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८३२ गीता-हृदय (4 इसीकी पुष्टिम कह दिया है कि इस आत्माको जाननेवाला सब कुछ जान जाता है। उसकी दृष्टिसे कोई भी क्षर अक्षर वच पाता नही। इसीलिये अपनेको आपको सभी पदार्थोंका रूप देखता है, मानता है, बना डालता है, खुद सवोकी आत्मा बन जाता है। यही है उसका सर्वभावेन भजन । उफ, कितना ऊँचा खयाल है, कितना ऊँचा आदेश है । एक पत्थर भी तोडिये तो वह ज्ञानी अपनेको ही टूटता देखता है । और चिहुँक उठता है । सहसा आह भर लेता है । उससे बढके जन-सेवक, ससार-सेवक और कौन है ? सचमुच ही उससे बढके "सर्वभूतात्म भूतात्मा" तथा "सर्वभूतहितेरत" कौन हो सकता है ? इसीलिये उसे पुरुषोत्तम कहा है । व्यष्टि और समष्टिकी या पिंड और ब्रह्माडकी एकता जो हो गई। उससे उत्तम और ऊँचा कोई भी, कुछ भी हई नही । यही कारण है कि उसे अब कुछ भी करना-धरना रह नही जाता | उसने सबकुछ कर धर लिया | वह कृतकृत्य हो गया । अब अगर कुछ भी करता है तो इसी- लिये कि उसका स्वभाव ही वैसा हो गया, न कि उस करने-धरनेमे कुछ प्रयोजन देखता है। इस अध्यायका विषय यदि यही पुरुषोत्तम है तो उचित ही है। सारे अध्यायका पर्यवसान ही उसीमे है । इति० पुरुषोत्तमयोगो नाम पचदशोऽध्यायः ॥१५॥ श्रीम० जो श्रीकृष्ण और अर्जुनका सवाद है उसका पुरुषोत्तम- योग नामक पन्द्रहवां अध्याय यही है ।