पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८१३

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सोलहवाँ अध्याय जिस ज्ञानके बाद कृतकृत्यता हो जाती है और मस्ती आ जाती है, जिस दृष्टिके चलते जरें-जरें और परमाणु-परमाणुमे 'अहम्' नजर आता है, आत्मा ही दीखती है, वह कैसे प्राप्त हो यह बात अन्तिम बार अच्छी तरह बता दी जाय तो बेडापार हो । यद्यपि पहले भी इसके उपाय बताये गये है; अभी-अभी पन्द्रवें अध्यायमे ही यही यत्न सुझाया गया है। तथापि उतना ही कहना काफी नही है। उसमे अभी कसर है, कुछ और भी कहना रह जाता है जिसे पूरा करना जरूरी है। वह कमी खासी है, महत्त्वपूर्ण है, न कि ऐसी ही तैसी। उसे पूरा न कर देनेमे खतरा है, भारी खतरा है, यह बात कृष्ण स्वयमेव समझते थे। यही कारण है कि उनने बिना कहे-सुने, बिना पूछे ही उसे पूरा कर दिया और इसमे पूरे दो-१६-१७-अध्याय लगा दिये । यह कोई मामूली बात नहीं है, यह मानना ही होगा। वात असल यह है कि ज्ञानकी प्राप्तिके साधनोको बता देनेपर भी दो चीजे रह गई है। एक तो यह कि इन साधनो पर चलनेमे खतरे क्या है, उन्हें अच्छी तरहसे बता देना । दूसरे यह कि जो भी साधन कहे गये है उनमे बुनियादी और मौलिक चीज क्या है जिसके बिना बाकी बेकार हो जाते है । साधनोके इन दोनो पहलुअोको, या यो कहिये कि इन दो स्पष्ट पहलुओके साथ साथ उन साधनोको अन्तमे याद कर करा लेना जरूरी था। पहली बात निपेधात्मक (negative) है और दूसरी विधानात्मक (positive)। इस दृष्टिसे भी इन्हे जान लेना जरूरी था। निषेधात्मक पहलूमे सबसे बड़ी ख़बी यह है कि वह न सिर्फ ज्ञान- ५३ -