पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/९२

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कर्मका पचड़ा ७९ ह कि हमें गीताधर्मको सार्वभौम धर्म-सारे ससारका धर्म-मानने और कहनेमे जरा भी हिचक नहीं होती। कर्मका पचड़ा हाँ, तो जरा उसी बातको देखे कि वह कौनसी है। हमने शुरूमे ही उसकी तरफ श्रद्धा, मानसिक भावना आदिके नामसे इशारा भी किया है और कहा है कि वही चीज कर्मके बाहरी रूपको सोलहो पाना पलट देती है-उसे एक निराले और अपने मनके ही साँचेमे ढाल देती है। वात यह है कि सोलहवे अध्यायके आखिरी दो-२३ और २४-श्लोको “य शास्त्रविधिमुत्सृज्य" आदि शब्दोके द्वारा ऐसा कहा गया है कि कोई भी काम-क्रिया या अमल-उसके सम्बन्धमे बने अनुशासन और पद्धतिविधान-शास्त्र के ही अनुसार किया जाना चाहिये । इसीलिये जो ऐसा नहीं करता है उसका न तो वह काम पूरा होता है, न उसे चैन मिलता है और न मरनेके बाद या पीछे उसका कल्याण ही होता है। बात भी ठीक ही है । हरेक कामकी निराली तरकीबे और प्रक्रियाये होती है, उसे करनेके नियम-कायदे होते है और बिगडने-बननेकी हालतमे पुरस्कार और दड-अनुशासन भी होते है। फिर चाहे वह काम लौकिक हो या पारलौकिक, बहुत बडा तथा अहम हो या मामूली। इसलिये उसके विधि-विधानको जानना और तदनुसार ही अमल करना जरूरी हो जाता है। जो लोग ऐसा नहीं करते उन्हे परीशानी तो होती ही है, उनका काम भी ठीक-ठीक हो नही पाता और पीछे जाने क्या-क्या नतीजे भुगतने पडते है। इसलिये गीताका यह आदेश-उसकी यह चेतावनी- बहुत ही मौजूं है। मगर दरअसल यह बात उतनी आसान और सीधी नही है जितनी यकायक मालूम पडती है । गीताके ही अनुसार “कर्मोकी जानकारी, उनकी