? गीता-हृदय माया, गहन है, बहुत ही का न है"--"गहना कर्मणो गति" (४११७)। फलत जब हम कर्मों के घोर और दुष्प्रवेश जगलमे घुसते है तो यही नही कि रास्ता नहीं मिल पाता और भटक जाते है, बल्कि कांटोमे विध जाते, खूखार जानवरोके शिकार बन जाते और चोर-बदमाशोके शिकजेमें भी फंस जाते है । एक तो कर्म योही ठहरे अनन्त । फिर उनकी जानकारी ठहरी उनसे भी अनन्त । तिसपर भी हरेकके ब्योरे होते ही है। उन्हें जाननेका अवसर सबको मिलता भी नही । ऐसी दशामे हो क्या क्या लोग कर्मोसे विमुख रहे ? क्योकि अधिकाश लोग तो ऐसे ही होगे। मगर तब तो ससारका काम ही रुक जायगा। आखिर यह कैसे और क्यो कहा जाय कि किस कामके विधि-विधानको-शास्त्रविधानको- बखूबी जाननेकी जरूरत है और किसकी नही ? सभी तो काम ही- कर्म ही-ठहरे और "गहना कर्मणो गति" तो सभोपर समान रूपसे लागू है । यदि भीतर घुसके देखें तो बात भी ऐसी ही है । अत “को बड छोट कहत अपराधू " इसीलिये यही मानना होगा कि "ऊपर चढके देखा, घर घर एक लेखा।" और अगर इस दिक्कतसे बचने और दुनिया- का काम चलानेके लिये लोग योही कर्मोंमे लग जायँ, तो उनकी हालत क्या होगी? उनकी गति तो अभी-अभी कह चुके है। यही खयाल करके अर्जुन जैसे सूक्ष्मदर्शीने सत्रहवे अध्यायके पहले ही श्लोकमे चटपट यही बात पूछ ही तो दी। कृष्णने आगेके दो और तीन श्लोकोमे उसका उत्तर देके उसीका विवरण समूचे अध्यायमें किया है। इस बातपर जरा हम और गौर करे। किसी भी काम करनेके लिये रास्ते बतानेवाले दोई तरहके हो सकते है। एक तो जीवित मनुष्य और दूसरे उसके बारे में लिखी लिखाई पुस्तकें, जिन्हें शास्त्र कहते है। अब अगर जिन्दा आदमियोको लेते है तो इतनी लम्बी दुनियामे वे खामखा होगे बहुत ज्यादा। एक-दो या दस-बीससे तो काम चलनेका नहीं।
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