डायरी बन्द करके उसने एक लम्बी साँस खीची और उठ खडा हुआ। कपड़े पहने, रिवाल्वर जेब में रखा और बोला--अब तो वक़्त हो गया अम्माॅ!
माॅ ने कुछ जवाब न दिया। घर सम्हालने की किसे परवाह थी, जो चीज जहाॅ पड़ी थी, वहीं पड़ी रही। यहाॅ तक कि दिया भी न बुझाया गया। दोनों खामोश घर से निकले--एक मर्दानगी के साथ कदम उठाता, दूसरी चिन्तित और शोक-मग्न और बेबसी के बोझ से झुकी हुई। रास्ते में भी शब्दो का विनिमय न हुआ। दोनों भाग्य-लिपि की तरह अटल, मौन और तत्पर थे--गद्याश तेजस्वी, बलवान्, पुनीत कर्म की प्रेरणा; पद्यांश दर्द, आवेश और विनती से काँपता हुआ।
झाडी में पहुँचकर दोनो चुपचाप बैठ गये। कोई आध घण्टे के बाद साहब की मोटर निकली। धर्मवीर ने ग़ौर से देखा। मोटर की चाल धीमी थी। साहब और लेडी दोनों बैठे थे। निशाना अचूक था। धर्मवीर ने जेब से रिवाल्वर निकाला। माँ ने उसका हाथ पकड़ लिया और मोटर आगे निकल गयी।
धर्मवीर ने कहा--यह तुमने क्या किया अम्माँ! ऐसा सुनहरा मौक़ा फिर हाथ न आयेगा।
माँ ने कहा--मोटर मे मेम भी थी। कही मेम को गोली लग जाती तो?
'तो क्या बात थी। हमारे धर्म में नाग, नागिन और सँपोले में कोई भी अन्तर नहीं।'
माँ ने घृणा के स्वर में कहा--तो तुम्हारा धर्म जंगली जानवरो और वहशियों का है, जो लड़ाई के बुनियादी उसूलों की भी परवाह नहीं करता। स्त्री हर एक धर्म में निर्दोष समझी गयी है। यहाँ तक कि वहशी भी उसका आदर करते है।
'मैं वापसी के समय हरगिज़ न छोडूँगा।'
'मेरे जीते-जी तुम स्त्री पर हाथ नहीं उठा सकते।'
'मैं इस मामले में तुम्हारी पाबन्दियों का गुलाम नहीं हो सकता।'
माँ ने कुछ जवाब न दिया। इस नामर्दो जैसी बात से उसकी ममता टुकड़े-टुकड़े हो गयी। मुश्किल से बीस मिनट बीते होगे कि वही मोटर दूसरी तरफ से आती दिखायी पड़ी। धर्मवीर ने मोटर को गौर से देखा और उछलकर बोला--लो अम्मॉ, अबकी बार साहब अकेला है। तुम भी मेरे साथ निशाना लगाना।
माँ ने लपककर धर्मवीर का हाथ पकड़ लिया और पागलों की तरह जोर लगाकर उसका रिवाल्वर छीनने लगी। धर्मवीर ने उसको धक्का देकर गिरा