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गुप्त धन
 


गजेन्द्र--भाई, मुझे इन चीजों का शौक नही। मुझे तो ताज्जुब हो रहा है कि बूढ़े भी कितनी दिलचस्पी से आतिशबाजी छुड़ा रहे है।

मुन्नू--दो-चार महताबियाॅ तो जरूर छोड़िए।

गजेन्द्र को महताबियाॅ निरापद जान पडी। उनकी लाल, हरी, सुनहरी चमक के सामने उनके गोरे चेहरे और खूबसूरत बालों और रेशमी कुर्ते की मोहन कता कितनी बढ़ जायगी। कोई खतरे की बात भी नहीं। मजे से हाथ मे लिये खड़े है, गुल टप-टप नीचे गिर रहा है और सब की निगाहे उनकी तरफ लगी हुई है। उनकी दार्शनिक बुद्धि भी आत्मप्रदर्शन की लालसा से मुक्त न थी। फ़ौरन महताबी ले ली, उदासीनता की एक अजब शान के साथ। मगर पहली ही महताबी छोड़ना शुरू की थी कि दूसरा बमगोला छूटा। आसमान काँप उठा। गजेन्द्र को ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कान के पर्दे फट गये या सिर पर कोई हथौडा-सा गिर पडा। महताबी हाथ से छूटकर गिर पड़ी और छाती धडकने लगी। अभी इस धमाके से सम्हलने न पाये थे कि दूसरा धमाका हुआ। जैसे आसमान फट पडा। सारे वायुमण्डल मे कम्पन-सा आ गया, चिड़ियाँ घोंसलों से निकल-निकल शोर मचाती हुई भागी, जानवर रस्सियाँ तुडा-तुड़ाकर भागे और गजेन्द्र भी सिर पर पॉव रखकर भागे, सरपट, और सीधे घर पर आकर दम लिया। चुन्नू और मुन्नू दोनों घबड़ा गये। सूबेदार साहब के होश उड़ गये। तीनों आदमी बगटुट दौड़े हुए गजेन्द्र के पीछे चले। दूसरो ने जो उन्हे भागते देखा तो समझे शायद कोई वारदात हो गयी। सब के सब उनके पीछे हो लिये। गाँव में एक प्रतिष्ठित अतिथि का आना मामूली बात न थी। सब एक-दूसरे से पूछ रहे थे--मेहमान को हो क्या गया? माजरा क्या है? क्यों यह लोग दौड़े जा रहे है?

एक पल मे सैकड़ो आदमी सूबेदार साहब के दरवाजे पर हाल-चाल पूछने के लिए जमा हो गये। गाँव का दामाद कुरूप होने पर भी दर्शनीय और बदहाल होते हुए भी सबका प्रिय होता है।

सूबेदार ने सहमी हुई आवाज से पूछा--तुम वहाॅ से क्यों भाग आये, भइया?

गजेन्द्र को क्या मालूम था कि उसके चले आने से यह तहलका मच जायगा। मगर उसके हाजिर दिमाग ने जवाब सोच लिया था और जवाब भी ऐसा कि गाँव वालों पर उसकी अलौकिक दृष्टि की धाक जमा दे।