बोला--कोई खास बात न थी, दिल में कुछ ऐसा ही आया कि यहाॅ से भाग जाना चाहिए।
'नही कोई बात ज़रूर थी।'
'आप पूछकर क्या करेगे? मैं उसे ज़ाहिर करके आपके आनन्द में विघ्न नहीं डालना चाहता।
'जब तक बतला न दोगे बेटा, हमें तसल्ली न होगी। सारा गाँव घबराया हुआ है।'
गजेन्द्र ने फिर सूफियों का-सा चेहरा बनाया, आँखे बन्द कर ली, जम्हाइयाँ लीं और आसमान की तरफ देखकर बोले--बात यह है कि ज्यों ही मैंने महताबी हाथ मे ली, मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे किसी ने उसे मेरे हाथ से छीनकर फेंक दिया। मैंने कभी आतिशबाज़ियाँ नहीं छोड़ी, हमेशा उनको बुरा-भला कहता रहा हूँ। आज मैने वह काम किया जो मेरी अन्तरात्मा के खिलाफ़ था। बस गजब ही तो हो गया। मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही है। शर्म से मेरी गर्दन झुक गयी और मैं इसी हालत में वहाँ से भागा। अब आप लोग मुझे माफ करे, मैं आपके जशन में न शरीक हो सकूँगा।
सूबेदार साहब ने इस तरह गर्दन हिलायी कि जैसे उनके सिवा वहाॅ कोई इस अध्यात्म का रहस्य नहीं समझ सकता। उनकी आँखें कह रही थी--लोगो की समझ में यह बाते? तुम भला क्या समझोगे, हम भी कुछ-कुछ ही समझते हैं।
होली तो नियत समय पर जलायी गयी थी मगर आतिशबाजियाँ नदी में डाल दी गयीं। शरीर लड़कों ने कुछ इसलिए छिपाकर रख लीं कि गजेन्द्र चले जायेंगे तो मज़े से छुड़ायेंगे।
श्यामदुलारी ने एकान्त मे कहा--तुम तो वहाँ से खूब भागे!
गजेन्द्र अकड़कर बोले--भागता क्यों, भागने की तो कोई बात न थी।
'मेरी तो जान निकल गयी कि न मालूम क्या हो गया। तुम्हारे ही साथ मैं भी दौड़ी आयी। टोकरी भर आतिशबाजी पानी मे फेक दी गयी।'
'यह तो रुपये को आग में फूँकना है।'
'होली मे भी न छोड़ें तो कब छोडे। त्योहार इसीलिए तो आते है।'
'त्योहार में गाओ-बजाओ, अच्छी-अच्छी चीजे पकाओ-खाओ, खैरात