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गुप्त धन
 

यह या तो यहीं बँधे-बॅधे मर जायगा, या कोई इतने दाम देकर इसे ले जायगा।

मदारी निराश होकर चला गया। दस रुपये कहाँ से लाता? बुधिया से जाकर हाल कहा। बुधिया को अपनी तरस पैदा करने की शक्ति पर ज्यादा भरोसा था। बोली--'बस, देख ली तुम्हारी करतूत! जाकर लाठी-सी मारी होगी। हाकिमों से बड़े दॉव-पेच की बाते की जाती है, तब कही जाकर वे पसीजते है। चलो मेरे साथ, देखो छुड़ा लाती हूॅ कि नहीं।' यह कहकर उसने मन्नू का सब सामान एक गठरी मे बाॅधा और मदारी के साथ साहब के पास आयी। मन्नू अब की इतने ज़ोर से उछला कि खभा हिल उठा। बुधिया ने कहा--'सरकार, हम आपके द्वार पर भीख माॅगने आये है, यह बदर हमको दान दे दीजिए।'

साहब--हम दान देना पाप समझते है।

मदारिन --हम देस-देस घूमते है। आपका जस गावेगे।

साहब--हमे जस की चाह या परवाह नहीं है।

मदारिन--भगवान आपको इसका फल देगे।

साहब--मै नही जानता भगवान कौन बला है।

मदारिन--महाराज, क्षमा की बड़ी महिमा है।

साहब--हमारे यहाँ सबसे बड़ी महिमा दण्ड की है।

मदारिन--हुजूर, आप हाकिम है। हाकिमो का काम है, न्याय करना। फलो के पीछे दो आदमियो की जान न लीजिए। न्याय ही से हाकिम की बड़ाई होती है।

साहब--हमारी बड़ाई क्षमा और न्याय से नहीं है और न न्याय करना हमारा काम है, हमारा काम है मौज करना।

बुधिया की एक भी युक्ति इस अहकार-मूर्ति के सामने न चली। अत को निराश होकर वह बोली--हुजूर इतना हुक्म तो दे दें कि ये चीजे बन्दर के पास रख दूँ। इन पर यह जान देता है।

साहब--मेरे यहाँ यह कूड़ा-करकट रखने की जगह नहीं है। आखिर बुधिया हताश होकर चली गयी।

टामी ने देखा, मन्नू कुछ बोलता नहीं, तो शेर हो गया। भूँकता- भूँकता मन्नू के पास चला आया। मन्नू ने लपककर उसके दोनों कान पकड़ लिये और इतने तमाचे लगाये कि उसे छठी का दूध याद आ गया। उसकी चिल्लाहट सुनकर साहब