सयोगवश एक दिन सर्कस के पडाल मे आग लग गई। सर्कस के नौकर-चाकर सब जुआरी थे। दिन भर जुआ खेलते, शराब पीते और लडाई-झगडा करते थे। इन्ही झझटो मे एकाएक गैस की नली फट गयी। हाहाकार मच गया। दर्शक-वृन्द जान लेकर भागे। कंपनी के कर्मचारी अपनी चीजे निकालने लगे। पशुओ की किसी को खबर न रही। सर्कस मे बडे-बडे भयकर जीव-जन्तु तमाशा करते थे। दो शेर, कई चीते, एक हाथी, एक रीछ था। कुत्तो, घोडो तथा बन्दरी की सख्या तो इससे कहीं अधिक थी। कंपनी धन कमाने के लिए अपने नौकरों की जान को कोई चीज नही समझती थी। ये सब के सब जीव इस समय तमाशे के लिए खोले गये थे। आग लगते ही वे चिल्ला-चिल्लाकर भागे। मन्नू भी भाग खड़ा हुआ। पीछे फिरकर भी न देखा कि पंडाल जला या बचा।
मन्नू कूदता-फाँदता सीधे उसी घर पहुँचा, जहाँ जीवनदास रहता था, लेकिन द्वार बन्द था। खपरैल पर चढ़कर वह घर मे घुस गया, मगर किसी आदमी का चिन्ह नहीं मिला। वह स्थान, जहाँ वह सोता था, और जिसे बुधिया गोबर से लीपकर साफ रक्खा करती थी, अब घास-पात से ढँका हुआ था। वह लकड़ी जिस पर चढकर बह कूदा करता था, दीमको ने खा ली थी। मुहल्लेवाले उसे देखते ही पहचान गये। शोर मच गया--मन्नू आया, मन्नू आया।
मन्नू उस दिन से रोज सन्ध्या के समय उसी घर मे आ जाता, और अपने पुराने स्थान पर लेट रहता। वह दिन भर मुहल्ले मे घूमा करता था, कोई कुछ दे देता, तो खा लेता था, मगर किसी की कोई चीज नही छूता था। उसे अब भी आशा थी कि मेरा स्वामी यहाँ मुझसे अवश्य मिलेगा। रातो को उसके कराहने की करुण ध्वनि सुनायी देती थी। उसकी दीनता पर देखनेवालों की ऑखो से आँसू निकल पड़ते थे।
इस प्रकार कई महीने बीत गये। एक दिन मन्नू गली में बैठा हुआ था, इतने मे लड़को का शोर सुनायी दिया। उसने देखा, एक बुढिया नगे सिर, नगे बदन, एक चीथडा कमर मे लपेटे, सिर के बाल छिटकाए, भुतनियों की तरह चली आ रही है, और कई लड़के उसके पीछे पत्थर फेकते 'पगली नानी!' पगली नानी!! की हॉक लगाते, तालियाँ बजाते चले आ रहे है। वह रह-रहकर रुक जाती है और लड़कों से कहती है। 'मैं पगली नही हूँ, मुझे पगली क्यों कहते हो?' आखिर बुढ़िया जमीन पर बैठ गयी, और बोली--'बताओ, मुझे पगली क्यों कहते हो?'