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नबी का नीति-निर्वाह
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प्रचण्ड रूप से उठता है। दोपहर का समय था। धूप इतनी तेज़ थी कि उसकी ओर ताकते ऑखो से चिनगारियाॅ निकलती थी। हजरत मुहम्मद अपने मकान में चिन्तामग्न बैठे हुए थे। निराशा चारो ओर अन्धकार के रूप में दिखायी देती थी। खुदैजा भी पास ही बैठी हुई एक फटा कुर्त्ता सी रही थी। धन-सम्पत्ति सब कुछ इस लगन के भेट हो चुकी थी। विधर्मियों का दुराग्रह दिनोदिन बढ़ता जाता था। इसलाम के अनुयायियों को भाॅति-भाॅति की यातनाऍ दी जा रही थी। स्वय हज़रत को घर से निकलना मुश्किल था। खौफ होता था कि कहीं लोग उन पर ईंट-पत्थर न फेकने लगे। खबर आती थी कि आज अमुक मुसलमान का घर लूटा गया, आज फलां को लोगो ने आहत किया। हज़रत ये खबरे सुन-सुनकर विकल हो जाते थे और बार-बार खुदा से धैर्य और क्षमा की याचना करते थे।

हज़रत ने फरमाया--मुझे ये लोग अब यहाँ न रहने देगे। मैं खुद सब कुछ झेल सकता हूॅ पर अपने दोस्तो को तकलीफ नहीं देखी जाती।

खुदैजा--हमारे चले जाने से तो इन बेचारो को और भी कोई शरण न रहेगी। अभी कम से कम आपके पास आकर रो तो लेते है। मुसीबत मे रोने का सहारा कम नहीं होता।

हज़रत--तो मै अकेले थोडे ही जाना चाहता हूँ। मैं अपने सब दोस्तों को साथ लेकर जाने का इरादा रखता हूॅ। अभी हम लोग यहाॅ बिखरे हुए है। कोई किसी की मदद को नही पहुॅच सकता। हम सब एक ही जगह एक कुटुम्ब की तरह रहेगे तो किसी को हमारे ऊपर हमला करने की हिम्मत न होगी। हम अपनी मिली हुई शक्ति से बालू का ढेर तो हो ही सकते है जिस पर चढ़ने का किसी को साहस न होगा।

सहसा ज़ैनब घर में दाखिल हुई। उसके साथ न कोई आदमी था न कोई आदमजाद, ऐसा मालूम होता था कि कहीं से भगी चली आ रही है। खुदैजा ने उसे गले लगाकर कहा--क्या हुआ जैनब, खैरियत तो है?

ज़ैनब ने अपने अन्तर्द्वन्द्व की कथा सुनायी और पिता से दीक्षा की प्रार्थना की। हजरत मुहम्मद ऑखों में ऑसू भरकर बोले--ज़ैनब, मेरे लिए इससे ज़्यादा खुशी की और कोई बात नहीं हो सकती। लेकिन डरता हूँ कि तुम्हारा क्या हाल होगा।

ज़ैनब--या हज़रत, मैने खुदा की राह में सब कुछ त्याग देने का निश्चय किया है। दुनिया के लिए अपनी आकबत को नहीं खोना चाहती।