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गुप्त धन
 

रहना चाहते हो। अपनी आँखों की क़सम, समाज अपने ऊपर यह अत्याचार न होने देगा, मैं समझाये जाला हूँ, न मानोगे तो रोओगे।

अबूसिफ़ियान और उनकी टोली के लोग तो धमकियाँ देकर उधर गये, इधर अबुलआस ने लकड़ी सम्हाली और ससुराल जा पहुँचे। शाम हो गयी थी। हजरत अपने मुरीदों के साथ मगरिब की नमाज़ पढ रहे थे। अबुलआस ने उन्हें सलाम किया और जब तक नमाज़ होती रही, ग़ौर से देखते रहे। आदमियों की कतारो का एक साथ उठना-बैठना और सिजदे करना देखकर उनके दिल पर गहरा प्रभाव पड़ रहा था। वह अज्ञात भाव से संगत के साथ बैठते, झुकते और खड़े हो जाते थे। वहाँ का एक-एक परमाणु इस समय ईश्वरमय हो रहा था। एक क्षण के लिए अबुलआस भी उसी भक्ति-प्रवाह में आ गये।

जब नमाज़ खत्म हो गयी तब अबुलआस ने हजरत से कहा--मै जैनब को बिदा कराने आया हूँ।

हजरत ने विस्मित होकर कहा--तुम्हे मालूम नहीं कि वह खुदा और रसूल पर ईमान ला चुकी है?

अबु०--जी हाँ, मालूम है।

हज०--इसलाम ऐसे सम्बन्धो का निषेध करता है।

अबु०--क्या इसका यह मतलब है कि ज़ैनब ने मुझे तलाक दे दिया?

हज०--अगर यही मतलब हो तो?

अबु०--तो कुछ नहीं, जैनब को खुदा और रसूल को बन्दगी मुबारक हो। मैं एक बार उससे मिलकर घर चला जाऊँगा और फिर कभी आपको अपनी सूरत न दिखाऊँगा। लेकिन उस दशा में अगर कुरैश जाति आपसे लड़ने के लिए तैयार हो जाय तो इसका इलज़ाम मुझ पर न होगा। हाँ, अगर जैनब मेरे साथ जायगी तो कुरैश के क्रोध का भाजन मैं हूँगा। आप और आपके मुरीदों पर कोई आफ़त न आयेगी।

हज०--तुम दबाव मे आकर जैनब को खुदा की तरफ़ से फेरने का तो यत्न न करोगे?

अबु०--मैं किसी के धर्म में विघ्न डालना लज्जाजनक समझता हूँ।

हज०--तुम्हें लोग जैनब को तलाक़ देने पर तो मजबूर न करेगे?