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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/१७१

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प्रेम-सूत्र
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कृष्णा वहाँ से चल दी। माया भी उसके साथ ही चली गयी। पशुपति एक क्षण तक वहाँ खड़ा रहा फिर वह भी उनके पीछे-पीछे चला! मानो वह सुई है जो चुम्बक के आकर्षण से आप ही आप खिंचा चला जाता है।

सहसा कृष्णा रुक गयी और बोली—सुनिए पशुपति बाबू, आज सन्ध्या समय प्रभा की बातो से मालूम हो गया कि उन्हे आपका और मेरा मिलना-जुलना बिलकुल नहीं भाता......

पशुपति—प्रभा की तो आप चर्चा ही छोड़ दीजिए।

कृष्णा—क्यों छोड़ दूं? क्या वह आपकी स्त्री नहीं है? आप इस समय उसे घर में अकेली छोडकर मुझसे क्या कहने के लिए आये है ? यही कि उसकी चर्चा न करूं?

पशुपति—जी नही, यह कहने के लिए कि अब यह विरहाग्नि नही सही जाती।

कृष्णा ने ठट्ठा मारकर कहा—आप तो इस कला में बहुत निपुण जान पड़ते है। प्रेम! समर्पण! विरहाग्नि! यह शब्द आपने कहाँ सीखे?

पशुपति—कृष्णा, मुझे तुमसे इतना प्रेम है कि मै पागल हो गया हूँ।

कृष्णा—तुम्हे प्रभा से क्यों प्रेम नही है?

पशुपति—मै तो तुम्हारा उपासक हूँ।

कृष्णा—लेकिन यह क्यो भूल जाते हो कि तुम प्रभा के स्वामी हो?

पशुपति—तुम्हारा तो दास हूँ।

कृष्णा—मैं ऐसी बाते नही सुनना चाहती।

पशुपति—तुम्हें मेरी एक-एक बात सुननी पड़ेगी। तुम जो चाहो वह करने को मै तैयार हूँ।

कृष्णा—अगर यह बाते कही वह सुन ले तो?

पशुपति—सुन ले तो सुन ले। मै हर बात के लिए तैयार हूँ। मैं फिर कहता हूँ, कि अगर तुम्हारी मुझ पर कृपादृष्टि न हुई तो मैं मर जाऊँगा।

कृष्णा—तुम्हे यह बाते करते समय अपनी पत्नी का ध्यान नहीं आता ?

पशुपति—मै उसका पति नहीं होना चाहता है मै तो तुम्हारा दास होने के लिए बनाया गया हूँ। वह सुगन्ध जो इस समय तुम्हारी गुलाबी साड़ी से निकल रही है, मेरी जान है। तुम्हारे ये छोटे-छोटे सुन्दर पॉव मेरे प्राण है। तुम्हारी हैसी, तुम्हारी छवि, तुम्हारा एक-एक अग मेरा प्राण है। मैं केवल तुम्हारे लिए पैदा हुआ हूँ।