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प्रेम-सूत्र
१८१
 

पकडे हुए गाडी की ओर चली। उसने पशुपति को न कोई उत्तर दिया और न यह सुना कि वह क्या कह रहा है।

'अम्माँ, आप क्यों हँस रही है?'

'कुछ तो नही बेटी।'

'वह पीले-पीले पुराने कागज तुम्हारे हाथ मे क्या है?'

'ये उस ऋण के पुर्जे है जो वापस नहीं मिला।'

'ये तो पुराने खत मालूम होते है?'

'नही बेटी।'

बात यह थी कि प्रभा अपनी चौदह वर्ष की युबती पुत्री के सामने सत्य का पर्दा नहीं खोलना चाहती थी। हाँ, बे कागज वास्तव में एक ऐसे कर्ज के पुर्जे थे जो वापस नहीं मिला। ये वही पुराने पत्र थे जो आज एक किताब मे रक्खे मिले थे और ऐसे फूल की पंखुडियो की भाँति दिखायी देते थे जिनका रग और गन्ध किताब मे रक्खे-रक्खे उड गयी हो, तथापि वे सुख के दिनों की याद दिला रहे थे और इस कारण प्रभा की दृष्टि मे वे बहुमूल्य थे।

शान्ता समझ गयी कि अम्माँ कोई ऐसा काम कर रही है जिसकी खबर मुझे नही करना चाहती और इस बात से प्रसन्न होकर कि मेरी दुखी माता आज अपना शोक भूल गयी है और जितनी देर वह इस आनन्द मे मग्न रहे उतना ही अच्छा है, एक बहाने से बाहर चली गयी। प्रभा जब कमरे में अकेली रह गयी तब उसने उन पत्रों को फिर पढना शुरू किया।

आह! इन चौदह वर्षों में क्या कुछ नही हो गया! इस समय उस विरहिणी के हृदय मे कितनी ही पूर्व स्मृतियॉ जाग्रत हो गयी, जिन्होने हर्ष और शोक के स्रोत एक साथ ही खोल दिये।

प्रभा के चले आने के बाद पशुपति ने बहुत चाहा कि कृष्णा से उसका विवाह हो जाय पर वह राजी न हुई। इसी नैराश्य और क्रोध की दशा में पशुपति एक कम्पनी का एजेण्ट होकर योरोप चला गया। तब फिर उसे प्रभा की याद आयी। कुछ दिनों तक उसके पास से क्षमाप्रार्थना-पूर्ण पत्र आते रहे, जिनमें वह बहुत जल्द घर आकर प्रभा से मिलने के बादे करता रहा और प्रेम के इस नये प्रवाह में पुरानी कटुताओं को जलमग्न कर देने के आशामय स्वप्न देखता रहा। पति-परायणा