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पर्वत-यात्रा
२०७
 


का खत आया कि आप हमारे यहाँ आयेगे या मुझसे स्टेशन पर मिलेगे। कुँअर साहब ने जवाब लिखवाया कि आप इधर ही आ जाइएगा। स्टेशन का रास्ता इसी तरफ से है। मैं तैयार रहूँगा। यह खत लिखवाकर कुँअर साहब अन्दर गये तो देखा कि उनकी बड़ी साली रामेश्वरी देवी बैठी हुई है। उन्हे देखकर वोली-क्या आप सचमुच नैनीताल जा रहे है ?

कुँअर—जी हाँ, आज रात को तैयारी है।

रामेश्वरी—अरे! आज ही रात को! यह नहीं हो सकता। कल बच्चा का मुडन है। मै एक न मानूंगी। आप ही न होंगे तो और लोग आकर क्या करेंगे।

कुँअर—तो आपने पहले ही क्यों न कहला दिया, पहले से मालूम होता तो मैं कल जाने का इरादा ही क्यो करता।

रामेश्वरी—तो इसमे लाचारी की कौन-सी बात है, कल न सही दो-चार दिन बाद सही।

कुँअर साहब की पत्नी सुशीला देवी बोली—हाँ और क्या, दो-चार दिन बाद ही जाना, क्या साइत टली जाती है।

कुँअर—आह! छोटे साहब से वादा कर चुका हूँ, वह रातही को मुझे लेने आयेंगे। आखिर वह अपने दिल मे क्या कहेंगे?

रामेश्वरी—ऐसे-ऐसे वादे हुआ ही करते है। छोटे साहब के हाथ कुछ बिक तो गये नही हो।

कुँअर—मैं क्या कहूँ कि कितना मजबूर हूँ ! बहुत लज्जित होना पड़ेगा।

रामेश्वरी—तो गोया जो कुछ है वह छोटे साहबही है, मैं कुछ भी नहीं।

कुंअर—आखिर साहब से क्या कहूँ, कौन बहाना करूं?

रामेश्वरी—कह दो कि हमारे भतीजे का मुडन है, हम एक सप्ताह तक नही चल सकते। बस, छुट्टी हुई।

कुंभर—(हँसकर) कितना आसान कर दिया है आपने इस समस्या को। ऐसा हो सकता है कही। कही मुंह दिखाने लायक न रहूँगा।

सुशीला—क्यों, हो सकने को क्या हुआ? तुम उसके गुलाम तो नहीं हो?

कुँअर—तुम लोग बाहर तो निकलती-पैठती नही हो, तुम्हे क्या मालूम कि अंग्रेजो के विचार कैसे होते है।

रामेश्वरी—अरे भगवान! आखिर उसके कोई लडका-बाला है, या निगोड़ा नाठा है? त्योहार और ब्योहार हिन्दू-मुसलमान सबके यहाँ होते है।