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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२०९

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कवच
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इधर कुछ दिनों से एक पंजाबी औरत रनवास मे दाखिल हुई थी। उसके विषय में तरह-तरह की अफवाहे फैली हुई थी। कोई कहता था, मामूली वेश्या है, कोई ऐक्ट्रेस बतलाता था, कोई भले घर की लडकी। न वह बहुत रूपवती थी, न बहुत तरहदार, फिर भी राजा साहब उस पर दिलोजान से फिदा थे। राज-काज से उन्हें यों ही बहुत प्रेम न था, मगर अब तो वे उसी के हाथो बिक गये थे, वही उनके रोम-रोम मे व्याप्त हो गयी थी। उसके लिए एक नया राज-प्रासाद बन रहा था। नित नये-नये उपहार आते रहते थे। भवन की सजावट के लिए योरोप से नयी-नयी सामनियाँ मंगवायी थी! उसे गाना और नाचना सिखाने के लिए इटली, फ्रास, और जर्मनी के उस्ताद बुलाये गये थे। सारी रियासत मे उसी का डका बजता था। लोगों को आश्चर्य होता था कि इस रमणी मे ऐसा कौन-सा गुण है, जिसने राजा साहब को इतना आसक्त और आकर्षित कर रखा है।

एक दिन रात को मै भोजन करके लेटा ही था कि राजा साहब ने याद फर्माया। मन मे एक प्रकार का सशय हुआ कि इस समय खिलाफ मामूल क्यों मेरी तलवी हुई! मैं राजा साहब के अन्तरग मत्रियों मे से न था, इसलिए भय हुआ कि कही कोई विपत्ति तो नही आनेवाली है। रियासतो मे ऐसी दुर्घटनाएँ अक्सर होती हती है। जिसे प्रात काल राजा साहब की बगल में बैठे हुए देलिए, उसे सध्या समय अपनी जान लेकर रियासत के बाहर भागते हुए भी देखने मे आया है। मुझे सन्देह हुआ, किसी ने मेरी शिकायत तो नही कर दी। रियासतो मे निष्पक्ष रहना भी खतरनाक है। ऐसे आदमी का अगर कोई शत्रु नहीं होता तो कोई मित्र भी नहीं होता। मैने तुरन्त कपड़े पहने और मन मे तरह-तरह की दुष्कल्पनाएँ करता हुआ राजा साहब की सेवा में उपस्थित हुआ। लेकिन पहली ही निगाह मे मेरे सारे सशय मिट गये। राजा साहब के चेहरे पर क्रोध की जगह विषाद और नैराश्य का गहरा रग झलक रहा था। ऑखो मे एक विचित्र याचना झलक रही थी। मुझे देखते ही उन्होने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया, और बोले—'क्यो जी सरदार साहब, तुमने कभी प्रेम किया है? किसी के प्रेम में अपने आप को खो बैठे हो?'

मै समझ गया कि इस वक्त अदब और लिहाज की जरूरत नही। राजा साहब किसी व्यक्तिगत विषय मे मुझसे सलाह करना चाहते है। नि:सकोच होकर बोला—'दीनबन्धु, मैं तो कभी इस जाल में नहीं फँसा।'

राजा साहब ने मेरी तरफ खासदान बढ़ाकर कहा—'तुम बड़े भाग्यवान हो,