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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२१०

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गुप्त धन
 


अच्छा हुआ कि तुम इस जाल में नहीं फंसे। यह आँखों को लुभानेवाला सुनहरा जाल है, यह मीठा किन्तु घातक विष है, यह वह मधुर संगीत है जो कानों को तो भला मालूम होता है, पर हृदय को चूर-चूर कर देता है, यह वह मायामृग है, जिसके पीछे आदमी अपने प्राण ही नहीं, अपनी इज्जत तक खो बैठता है।'

उन्होने गिलास में शराब उँडेली और एक चुस्की लेकर बोले—जानते हो मैने इस सरफराज के लिए कैसी-कैसी परेशानियों उठायी? मै उसके भौहों के एक इशारे पर अपना यह सिर उसके पैरो पर रख सकता था, यह सारी रियासत उसके चरणों पर अर्पित कर सकता था। इन्ही हाथो से मैने उसका पलग बिछाया है, उसे हुक्का भर-भरकर पिलाया है, उसके कमरे मे झाडू लगायी है। वह पलंग से उतरती थी, तो मैं उसकी जूती सीधी करता था। इस खिदमतगुजारी में मुझे कितना आनन्द प्राप्त होता था, तुमसे बयान नहीं कर सकता। मैं उसके सामने जाकर उसके इशारों का गुलाम हो जाता था। प्रभुता और रियासत का गुरूर मेरे दिल से लुप्त हो जाता था। उसकी सेवा-शुश्रूषा मे मुझे तीनों लोक का राज मिल जाता था, पर इस जालिम ने हमेशा मेरी उपेक्षा की। शायद वह मुझे अपने योग्य ही नहीं समझती थी। मुझे यह अभिलाषा ही रह गयी कि वह एक बार अपनी उन मस्ताना रसीली आँखो से, एक बार उन इंगुर भरे हुए होठो से मेरी तरफ़ मुस्कराती। मैने समझा था शायद वह उपासना की ही वस्तु है, शायद वह प्रकृति ही से निष्ठुर है, शायद वह प्रणय के भाव से ही वचित है, शायद उसे इन रहस्यों का ज्ञान ही नही । हाँ, मैने समझा था, शायद अभी अल्हडपन उसके प्रेमोद्गारो पर मुहर लगाये हुए है। मै इस आशा से अपने व्यथित हृदय को तसकीन देता था कि कभी तो मेरी अभिलाषाएँ पूरी होंगी, कभी तो उसकी सोयी हुई कल्पना जागेगी।

राजा साहब एकाएक चुप हो गये। फिर कदे आदम शीशे की तरफ देखकर शान्त भाव से बोले—मैं इतना कुरूप तो नहीं हूँ कि कोई रमणी मुझसे इतनी घृणा करे।

राजा साहब बहुत ही रूपवान आदमी थे। ऊँचा कद था, भरा हुआ बदन, सेब का-सा रग, चेहरे से तेज झलकता था।

मैने निर्भीक होकर कहा—इस विषय मे तो प्रकृति ने हुजूर के साथ बड़ी उदारता के साथ काम लिया है।

राजा साहब के चेहरे पर एक क्षीण उदास मुस्कराहट दौड़ गयी, मगर फिर वही नैराश्य छा गया। बोले—सरदार साहब, मैंने इस बाजार की खूब सैर की है।