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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२३४

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गुप्त धन
 


गाँव का सबसे मनचला जवान, जिसकी तान रात के सन्नाटे में कोस भर से सुनायी पडती थी। दिन मे सैकडो बार तुलिया के घर के चक्कर लगाता। तालाब के किनारे, खेत मे, खलिहान मे, कुऐं पर, जहाँ वह जाती, परछ ई की तरह उसके पीछे लगा रहता। कभी दूध लेकर उसके घर जाता, कभी घी लेकर। कहता, तुलिया, मैं तुझसे कुछ नही चाहता, बस जो कुछ मैं तुझे भेट किया करूँ, वह लिया कर। तू मुझसे नही बोलना चाहती मत बोल, मेरा मुँह नही देखना चाहती, मत देख, लेकिन मेरा चढाबो को ठुकरा मत। बस, मै इसी से सन्तुष्ट हो जाऊँगा। तुलिया ऐसी भोली न थी, जानती थी यह उँगली पकडने की बाते है, लेकिन न जाने कैसे वह एक दिन उसके धोखे मे आ गयी—नही, धोखे मे नही आयी—उसकी जवानी पर उसे दया आ गयी। एक दिन वह पके हुए कलमी आमो की एक टोकरी लाया। तुलिया ने कभी कलमी आम न खाये थे। टोकरी उससे ले ली। फिर तो आये दिन आम की डालियों आने लगी। एक दिन जब तुलिया टोकरी लेकर घर में जाने लगी तो बसी ने धीरे से उसका हाथ पकड़कर अपने सीने पर रख लिया और चट उसके पैरो पर गिर पड़ा। फिर बोला—तुलिया, अगर अब भी तुझे मुझ पर दया नहीं आती तो आज मुझे मार डाल। तेरे हाथो से मर जाऊँ, बस यही साध है।

तुलिया ने टोकरी पटक दी, अपने पॉव छुड़ाकर एक पग पीछे हट गयी और रोषभरी आँखो से ताकती हुई बोली—अच्छा ठाकुर, अब यहाँ से चले जाव, नहीं तो या तो तुम न रहोगे या मैं न रहूँगी। तुम्हारे आमो मे आग लगे, और तुमको क्या कहूँ। मेरा आदमी काले कोसो मेरे नाम पर बैठा हुआ है, इसीलिए कि मैं यहाँ उसके साथ कपट करूं? वह मर्द है, चार पैसे कमाता है, क्या वह दूसरी न रख सकता था? क्या औरतो की ससार मे कमी है? लेकिन वह मेरे नाम पर बैठा हुआ है, मर्द होकर बैठा हुआ है। तुमसे कम पट्ठा नहीं है, तुम्हारा जैसा बॉका चाहे न हो। पढ़ोगे उपकी चिट्ठियाँ जो वह मेरे नाम भेजता है? आप चाहे जिस दशा मे हो, मै कौन यहाँ बैठी देखती हूँ, लेकिन मेरे पास बराबर रुपये भेजता है। इसीलिए कि मैं यहाँ दूसरों से विहार करूं? जब तक वह मुझको अपनी और अपने को मेरा समझता रहेगा, तुलिया उसी की रहेगी, मन से भी, करम से भी। जब उससे मेरा ब्याह हुआ तब मै पाँच साल की अल्हड़ छोकरी थी। उसने मेरे साथ कौन-सा सुख उठाया? बॉह पकड़ने की लाज ही तो निभा रहा है! जब वह मर्द होकर प्रीत निभाता है तो मैं औरत होकर उसके साथ दगा करूँ!