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गुप्त धन
 


'नही-नहीं, ऐसी नादानी मत करना। तुम्हारे बाल-बच्चे है, उनका पालन करना। अगर तुम्हे मुझसे सच्चा प्रेम है, तो ऐसा कोई काम मत करना जिससे किसी को इस प्रेम की गन्ध भी मिले। अपनी तुलिया को मरने के पीछे बदनाम मत करना।'

गिरधर ने रोकर कहा—जैसी तेरी इच्छा।

'मेरी तुमसे एक बिनती है।'

'अब तो जिऊँगा ही इसीलिए कि तेरा हुक्म पूरा करूँ। यही मेरे जीवन का ध्येय होगा।

'मेरी यही बिनती है कि अपनी भाभी को उसी तरह मान-मर्यादा के साथ रखना जैसे वह बंसीसिंह के सामने रहती थी। उसका आधा उसको दे देना।'

'लेकिन भाभी तो तीन महीने से अपने मैके में है, और कह गयी है कि अब कभी न आऊँगी।'

'यह तुमने बुरा किया है गिरधर, बहुत बुरा किया है। अब मेरी समझ में आया कि क्यो मुझे बुरे-बुरे सपने आ रहे थे। अगर चाहते हो कि मै अच्छी हो जाऊँ, तो जितनी जल्द हो सके, लिखा-पढी करके काग़ज-पत्तर मेरे पास रख दो। तुम्हारी यह बददियानती ही मेरी जान का गाहक हो रही है। अब मुझे मालूम हुआ कि बंसीसिह क्यो मुझे बार-बार सपना देते थे। मुझे और कोई रोग नहीं है। बसीसिंह ही मुझे सता रहे है। बस अभी जाओ। देर की तो मुझे जीता न पाओगे। तुम्हारी बेइन्साफी का दंड बसीसिंह मुझे दे रहे है।'

गिरधर ने दबी ज़बान से कहा—लेकिन रात को कैसे लिखा-पढी होगी तूला? स्टाम्प कहाँ मिलेगा? लिखेगा कौन? गवाह कहाँ है?

'कल साँझ तक भी तुमने लिखा-पढी कर ली तो मेरी जान बच जायगी, गिरधर। मुझे बसीसिंह लगे हुए है, वही मुझे सता रहे है, इसीलिए कि वह जानते है तुम्हें मुझसे प्रेम है। मै तुम्हारे ही प्रेम के कारन मारी जा रही हूँ। अगर तुमने देर की तो तुलिया को जीता न पाओगे।'

'मैं अभी जाता हूँ तुलिया। तेरा हुक्म सिर और आँखो पर। अगर तूने पहले ही यह बात मुझसे कह दी होती तो क्यों यह हालत होती? लेकिन कही ऐसा न हो, मैं तुझे देख न सकूँ और मन की लालसा मन मे ही रह जाय।'

'नही-नहीं, मैं कल साँझ तक नही मरूंगी, विश्वास रक्खो।'

गिरधर उसी छन वहाँ से निकला और रातों-रात पच्चीस कोस की मजिल काट दी। दिन निकलते-निकलते सदर पहुंचा, वकीलों से सलाह-मशविरा किया,