स्टाम्प लिया, भावज के नाम आधी जायदाद लिखी, रजिस्ट्री करायी, और चिराग जलते-जलते हैरान-परीशान, थका-मांदा, बेदाना-पानी, आशा और दुराशा से कॉपता हुआ आकर तुलिया के सामने खड़ा हो गया। रात के दस बज गये थे। उस वक्त न रेले थी, न लारियाँ। बेचारे को पचास कोस की कठिन यात्रा करनी पड़ी। ऐसा थक गया था कि एक-एक पग पहाड मालूम होता था। पर भय था कि कहीं देर हो गयी तो अनर्थ हो जायगा।
तुलिया ने प्रसन्न मन से पूछा—तुम आ गये गिरधर? काम कर आये ?
गिरधर ने कागज उसके सामने रख दिया और बोला—हॉ तूला, कर आया, मगर अब भी तुम अच्छी न हुई तो तुम्हारे साथ मेरी जान भी जायगी। दुनिया चाहे हँसे, चाहे रोये, मुझे परवाह नहीं है। कसम ले लो, जो एक घूँट पानी भी पिया हो।
तुलिया उठ बैठी और कागज को अपने सिरहाने रखकर बोली—अब मैं बहुत अच्छी हूँ। सबेरे तक बिलकुल अच्छी हो जाऊँगी। तुमने मेरे साथ जो नेकी की है, वह मरते दम तक न भूलूंगी। लेकिन अभी-अभी मुझे जरा नीद आ गयी थी। मैंने सपना देखा कि बसीसिंह मेरे सिरहाने खड़े है और मुझसे कह रहे है, तुलिया तू ब्याहता है, तेरा आदमी हजार कोस पर बैठा तेरे नाम की माला जप रहा है। चाहता तो दूसरी कर लेता, लेकिन तेरे नाम पर बैठा हुआ है और जन्म भर बैठा रहेगा। अगर तूने उससे दगा की तो मैं तेरा दुश्मन हो जाऊँगा, और फिर जान लेकर ही छोडूंगा। अपना भला चाहती है तो अपने सत् पर रह। तूने उससे कपट किया, उसी दिन मै तेरी सॉसत कर डालूंगा। बस यह कहकर वह लाल-लाल आँखों से मुझे तरेरते हुए चले गये।
गिरधर ने एक छन तुलिया के चेहरे की तरफ देखा, जिस पर इस समय एक दैवी तेज विराज रहा था, और एकाएक जैसे उसकी आँखों के सामने से पर्दा हट गया और सारी साजिश समझ मे आ गयी। उसने सच्ची श्रद्धा से तुलिया के चरणों को चूमा और बोला—समझ गया तुलिया, तू देवी है।
—चाँद, अप्रैल १९३५