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होली की छुट्टी
२९
 

तलब किये जाने के हथियारों का मुझ पर असर न हुआ। १९ को ज्यों ही स्कूल बन्द हुआ, मैने हेडमास्टर साहब को सलाम भी न किया और चुपके से अपने डेरे पर चला आया। उन्हे सलाम करने जाता तो वह एक न एक काम निकालकर मुझे रोक लेते—रजिस्टर में फीस की मीजान लगाते जाओ, औसत हाजिरी निकालते जाओ, लड़कों की कापियाँ जमा करके उन पर सशोधन और तारीख सब पूरी कर दो। गोया यह मेरा आखिरी सफ़र है और मुझे जिन्दगी के सारे काम अभी खतम कर देने चाहिए।

मकान पर आकर मैने चटपट अपनी किताबों की पोटली उठायी, अपना हलका लिहाफ़ कधे पर रखा और स्टेशन के लिए चल पड़ा। गाड़ी ५ बजकर ५ मिनट पर जाती थी। स्कूल की घड़ी हाजिरी के वक्त हमेशा आध घण्टा तेज और छुट्टी के वक़्त आधा घण्टा सुस्त रहती थी। चार बजे स्कूल बन्द हुआ था। मेरे खयाल मे स्टेशन पहुंचने के लिए काफी वक्त था। फिर भी मुसाफिरों को गाड़ी की तरफ़ से आम तौर पर जो अन्देशा लगा रहता है, और जो घड़ी हाथ में होने पर भी और गाडी का वक्त ठीक मालूम होने पर भी दूर से किसी गाड़ी की गडगड़ाहट या सीटी सुनकर कदमों को तेज़ और दिल को परीशान कर दिया करता है, वह मुझे भी लगा हुआ था। किताबों की पोटली भारी थी, उस पर कधे पर लिहाफ़, बार-बार हाथ बदलता और लपका चला जाता था। यहाँ तक कि स्टेशन कोई दो फर्लाग से नजर आया। सिगनल डाउन था। मेरी हिम्मत भी उस सिगनल की तरह डाउन हो गयी, उम्र के तक़ाज़े से एक सौ कदम दौड़ा जरूर मगर यह निराशा की हिम्मत थी। मेरे देखते-देखते गाड़ी आयी, एक मिनट ठहरी और रवाना हो गयी। स्कूल की घड़ी यकीनन आज और दिनो से भी ज्यादा सुस्त थी।

अब स्टेशन पर जाना बेकार था। दूसरी गाड़ी ग्यारह बजे रात को आयेगी, मेरे घरवाले स्टेशन पर कोई बारह बजे पहुंचेगी और वहाँ से मकान पर जाते-जाते एक बज जायगा। इस सन्नाटे में रास्ता चलना भी एक मोर्चा था जिसे जीतने की मुझमे हिम्मत न थी। जी में वो आया कि चलकर हेडमास्टर को आड़े हाथों लूं मगर जब्त किया और पैदल चलने के लिए तैयार हो गया। कुल बारह मील ही तो है, अगर दो मिल फी घटा भी चलूं तो छः घण्टे में घर पहुंच सकता हूँ। अभी पाँच बजे है, जरा कदम बढ़ाता जाऊँ तो दस बजे यकीनन पहुँच जाऊँगा। अम्माँ और मुन्नू मेरा इन्तजार कर रहे होंगे, पहुँचते ही गरम-गरम खाना मिलेगा। कोल्हाड़े मे गुड पक रहा होगा, वहाँ से गरम-गरम रस पीने को आ जायगा और