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गुप्त धन
 


जब लोग सुनेगे कि मैं इतनी दूर से पैदल चला आया हूँ तो उन्हे कितना अचरज होगा। मैने फ़ौरन गगा की तरफ पैर बढ़ाया। यह कस्बा नदी के किनारे था और मेरे गाँव की सडक नदी के उस पार से थी। मुझे इस रास्ते से जाने का कभी सयोग न हुआ था, मगर इतना सुना था कि कच्ची सडक सीधी चली जाती है, परीशानी की कोई बात न थी, दस मिनट में नाव उस पार पहुँच जायगी और बस फर्राटे भरता हुआ चल दूंगा। बारह मील कहने को तो होते है, है तो कुल छ: कोस! मगर घाट पर पहुँचा तो नाव मे आधे मुसाफिर भी न बैठे थे। मै कूदकर जा बैठा। खेवे के पैसे भी निकालकर दे दिये लेकिन नाव है कि बही अचल ठहरी हुई है। मुसाफिरो की संख्या काफी नहीं है, कैसे खुले। लोग तहसील और कचहरी से आते जाते है और बैठते जाते है और मैं हूँ कि अन्दर ही अन्दर भुना जाता हूँ। सूरज नीचे दौड़ा चला जा रहा है, गोया मुझसे बाजी लगाये हुए है। अभी सफेद था, फिर पीला होना शुरू हुआ और देखते-देखते लाल हो गया। नदी के उस पार क्षितिज पर लटका हुआ, जैसे कोई डोल कुएँ पर लटक रहा है। हवा में कुछ खुनकी भी आ गयी और भूख भी मालूम होने लगी। मैने आज घर जाने की खुशी और हडबड़ी मे रोटियॉन न पकायी थीं, सोचा था कि शाम को तो घर पहुँच जाऊँगा, लाओ एक पैसे के चने लेकर खा लूं। उन दोनों ने इतनी देर तक तो साथ दिया, अब पेट की पेचीदगियों में जाकर न जाने कहाँ गुम हो गये। मगर क्या ग़म है, रास्ते मे क्या दुकानें न होंगी, दो-चार पैसे की मिठाइयाँ लेकर खा लूंगा।

जब नाव उस किनारे पहुंची तो सूरज की सिर्फ आखिरी सॉस बाकी थी, हालांकि नदी का पाट बिलकुल पेदे में चिमटकर रह गया था।

मैंने पोटली उठायी और तेजी से चला। दोनों तरफ़ चने के खेत थे जिनके ऊदे फूलों पर ओस का हलका-सा पर्दा पड़ चला था। बेअख्तियार एक खेत में घुसकर बूट उखाड लिये और दूँगता हुआ भागा।

सामने बारह मील की मजिल है, कच्चा सुनसान रास्ता, शाम हो गयी है, मुझे पहली बार अपनी गलती मालूम हुई। लेकिन बचपन के जोश ने कहा कि क्या बात है, एक-दो मील तो दौड़ ही सकते है। बारह को मन मे १७६० से गुणा किया, बीस हजार गज ही तो होते हैं। बारह मील के मुकाबिले मे वीस हजार गज कुछ हलके और आसान मालूम हुए। और जब दो-तीन मील रह जायगा