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क्रिकेट मैच


१ जनवरी १९३५

आज क्रिकेट मैच में मुझे जितनी निराशा हुई मैं उसे व्यक्त नहीं कर सकता। हमारी टीम दुश्मनो से कही ज्यादा मजबूत थी मगर हमें हार हुई और वे लोग जीत का डका बचाते हुए ट्रोफी उड़ा ले गये। क्यो? सिर्फ इसलिए कि हमारे यहाँ नेतृत्व के लिए योग्यता शर्त नही। हम नेतृत्व के लिए धन-दौलत ज़रूरी समझते हैं। हिज हाइनेस कप्तान चुने गये, क्रिकेट बोर्ड का फैसला सबको मानना पड़ा। मगर कितने दिलो में आग लगी, कितने लोगों ने हुक्मे हाकिम समझकर इस फैसले को मजूर किया, वह खेलनेवालो से पूछिए। और जहाँ सिर्फ मुँहदेखी है वहाँ उमंग कहाँ, जोश कहाँ, सकल्प कहाँ, खून की आखिरी बूंद गिरा देने का उत्साह कहाँ। हम खेले और जाहिरा दिल लगाकर खेले। मगर यह सच्चाई के लिए जान देनेबालों की फौज न थी। खेल मे किसी का दिल न था।

मैं स्टेशन पर खड़ा अपना तीसरे दर्जे का टिकट लेने की फिक्र मे था कि एक युवती ने जो अभी कार से उतरी थी आगे बढ़कर मुझसे हाथ मिलाया और बोली—आप भी तो इसी गाडी से चल रहे है मिस्टर जफ़र?

मुझे हैरत हुई कि यह कौन लड़की है और इसे मेरा नाम क्योंकर मालूम हो गया। मुझे एक पल के लिए सकता-सा हो गया कि जैसे शिष्टाचार और अच्छे आचरण की सब बाते दिमाग से गायब हो गयी हों। सौन्दर्य मे एक ऐसी शान होती है जो बड़ों-बड़ो का सिर झुका देती है। मुझे अपनी तुच्छता की ऐसी अनुभूति कभी न हुई थी। मैने निजाम हैदराबाद से, हिज़ एक्सलेन्सी वायसराय से, महाराज मैसूर से हाथ मिलाया, उनके साथ बैठकर खाना खाया मगर यह कमजोरी मुझ पर कभी न छायी थी। बस यही जी चाहता था कि अपनी पलकों से उसके पाँव चूम लूं। यह वह सलोनापन न था जिस पर हम जान देते है, न वह नजाकत जिसकी कवि' लोग कसमें खाते है। उस जगह बुद्धि की कांति थी, गभीरता थी, गरिमा थी, उमग थी और थी आत्म-अभिव्यक्ति की निस्सकोच लालसा। मैंने सवाल भरे अंदाज से कहा—जी हाँ।