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गुप्त धन
 

एहसान के बोझ से दबी हुई है! क्या उस आदमी को वह खंजर का निशाना बना सकती है, जिसने बगैर किसी परिचय के सिर्फ हमदर्दी के जोश में ऐसे गाढ़े वक्त में उसकी मदद की? जान पर खेल गया? बह एक अजीब उलझन में पड़ गयी। उसने उसके चेहरे की तरफ देखा, शराफत झलक रही थी। ऐसा आदमी खून कर सकता है, इसमे उसे संदेह था।

ईश्वरदास ने पूछा—आप लाहौर से आ रही है न? शाहजहाँपुर में कहाँ जाइएगा?

'अभी तो कही धर्मशाला मे ठहरूँगी, मकान का इन्तजाम करना है।'

ईश्वरदास ने ताज्जुब से पूछा—तो वहाँ आप किसी दोस्त या रिश्तेदार के यहां नहीं जा रही है?

'कोई न कोई मिल ही जायगा।'

'यो आपका असली मकान कहाँ है ?'

'असली मकान पहले लखनऊ था, अब कही नही है। मै बेबा हूं।'

ईश्वरदास ने शाहजहाँपुर मे माया के लिए एक अच्छा मकान तय कर दिया। एक नौकर भी रख दिया। दिन मे कई बार हाल-चाल पूछने के लिए आता। माया कितना ही चाहती थी कि उसके एहसान न ले, उससे घनिष्ठता न पैदा करे, मगर वह इतना नेक, इतना बामुरोवत और शरीफ़ था कि माया मजबूर हो जाती थी।

एक दिन बह कई गमले और फ़र्नीचर लेकर आया। कई खूबसूरत तसवीरें भी थीं। माया ने त्यौरियाँ चढ़ाकर कहा- मुझे साज-सामान की बिलकुल ज़रूरत नही, आप नाहक तकलीफ़ करते है।

ईश्वरदास ने इस तरह लज्जित होकर कि जैसे उससे कोई भूल हो गयी हो, कहा—मेरे घर में यह चीजे बेकार पड़ी थी, लाकर रख दी।

'मैं इन टीम-टाम की चीजों की गुलाम नहीं बनना चाहती।'

ईश्वरदास ने डरते-डरते कहा—अगर आपको नागवार हो तो उठवाले जाऊँ?

माया ने देखा कि उसकी आँखे भर आयी है, मजबूर होकर बोली—आप ले आये है तो रहने दीजिए। मगर आगे से कोई ऐसी चीज़ न लाइएगा।

एक दिन माया का नौकर न आया। माया ने आठ-नौ बजे तक उसकी राह देखी। जब अब भी वह न आया तो उसने जूठे बर्तन मांजना शुरू किया। उसे