पण्डितजी--तो मालूम हो गया, आप बोदे आदमी है और है भी आप कुछ ऐसे हो। यहाॅ तो कुछ इस शान से हीले करते है कि सच्चाई भी उसके आगे धूल हो जाय। जिन्दगी भर यही बहाने करते गुजरी और कभी पकड़े न गये। एक तरकीब और है। इसी नमूने का देशी माल ले जाइए और कह दीजिए कि विलायती है।
अमरनाथ--देशी और विलायतो की पहचान उन्हे मुझसे और आपसे कही ज्यादा है। विलायती पर तो जल्द विलायती का यक़ीन आयेगा नहीं, देशी की तो बात ही क्या है!
एक खद्दरपोश महाशय पास ही खडे यह बातचीत सुन रहे थे, बोल उठे--ए साहब, सीधी-सी तो बात है, जाकर साफ कह दीजिए कि मै विदेशी कपड़े न लाऊॅगा। अगर जिद करे तो दिन भर खाना न खाइये, आप सीधे रास्ते पर आ जायेंगी।
अमरनाथ ने उनकी तरफ कुछ ऐसी निगाहो से देखा जो कह रही थीं आप इस कूचे को नहीं जानते और बोले--यह आप ही कर सकते है, मै नही कर सकता।
खद्दरपोश--कर तो आप भी सकते है लेकिन करना नहीं चाहते। यहाँ तो उन लोगों में से है कि अगर विदेशी दुआ से मुक्ति भी मिलती हो तो उसे ठुकरा दे।
अमरनाथ--तो शायद आप घर मे पिकेटिंग करते होगे?
खद्दरपोश--पहले घर मे करके तब बाहर करते है भाई साहब।
खद्दरपोश साहब चले गये तो पण्डितजी बोले--यह महाशय तो तीसमारखाँ से भी तेज निकले। अच्छा तो आप एक काम कीजिए। इस दुकान के पिछवाड़े एक दूसरा दरवाज़ा है, जरा अँधेरा हो जाय तो उधर से चले जाइएगा, दाये-बाये किसी तरफ न देखिएगा।
अमरनाथ ने पण्डितजी को धन्यवाद दिया और जब अँधेरा हो गया तो दुकान के पिछवाड़े की तरफ जा पहुँचे। डर रहे थे, कहीं यहाॅ भी घेरा न पडा हो। लेकिन मैदान खाली था। लपककर अन्दर गये, एक ऊँचे दामो की साडी खरीदी और बाहर निकले तो एक देवीजी केसरिया साडी पहने खड़ी थी। उनको देखकर इनकी रूह फना हो गयी, दरवाजे से बाहर पाॅव रखने की हिम्मत नहीं हुई। एक मिनट तक तो किवाड़ की आड़ मे छिपे खड़े रहे फिर देवीजी का मुंह दूसरी तरफ़ देखकर तेजी से निकल पडे और कोई सौ क़दम भागते हुए चले गये। कर्म का लिखा, सामने से एक बुढिया लाठी टेकती चली आ रही थी। आप उससे लड़