पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८६
गुप्त धन
 


अमरनाथ स्वाभिमान के मारे बगैर कुछ कहे घर की तरफ चल दिये, देवीजी 'लेते जाइए लेते जाइए' करती रह गयी।

अमरनाथ घर न जाकर एक खद्दर की दुकान पर गये और दो सूटों का खद्दर खरीदा। फिर अपने दर्जी के पास ले जाकर बोले--खलीफ़ा, इसे रातों-रात तैयार कर दो, मुॅहमाँगी सिलाई दूँगा।

दर्जी ने कहा--बाबू साहब, आजकल तो होली की भीड है। होली से पहले तैयार न हो सकेगे।

अमरनाथ ने आग्रह करते हुए कहा--मैं मुॅहमाॅगी सिलाई दूँगा, मगर कल दोपहर तक मिल जायँ। मुझे कल एक जगह जाना है। अगर दोपहर तक न मिले तो फिर मेरे किसी काम के न होंगे।

दर्जी ने आधी सिलाई पेशगी ले ली और कल तैयार कर देने का वादा किया।

अमरनाथ यहाॅ से आश्वस्त होकर मालती की तरफ चले। क़दम आगे बढते थे लेकिन दिल पीछे रहा जाता था। काश वह उनकी इतनी विनती स्वीकार कर ले कि कल दो घण्टे के लिए उनके वीरान घर को रौशन करे! लेकिन यकीनन वह उन्हें खाली हाथ देखकर मुँह फेर लेगी, सीधे मुँह बात नहीं करेगी, आने का ज़िक्र ही क्या। एक ही बेमुरौवत है। तो कल आकर देवीजी से अपनी सारी शर्मनाक कहानी बयान कर दूँ? उस भोले चेहरे की निस्स्वार्थ उमग उनके दिल में एक हलचल पैदा कर रही थी। उन आँखों में कितनी गम्भीरता थी, कितनी सच्ची सहानुभूति, कितनी पवित्रता! उसके सीधे-सादे शब्दों में कर्म की ऐसी प्रेरणा थी, कि अमरनाथ को अपने इन्द्रिय-परायण जीवन पर शर्म आ रही थी। अब तक कॉच के एक टुकडे को हीरा समझकर सीने से लगाये हुए थे। आज उन्हें मालूम हुआ हीरा किसे कहते है। उसके सामने वह टुकडा तुच्छ मालूम हो रहा था। मालती की बह जादूभरी चितवन, उसकी बह मीठी अदाएँ, उसकी शोखियाँ और नखरे सब जैसे मुलम्मा उड़ जाने के बाद अपनी असली सूरत में नजर आ रहे थे और अमरनाथ के दिल में नफरत पैदा कर रहे थे। वह मालती की तरफ़ जा रहे थे, उसके दर्शन के लिए नहीं, बल्कि उसके हाथों से अपना दिल छीन लेने के लिए। प्रेम का भिखारी आज अपने भीतर एक विचित्र अनिच्छा का अनुभव कर रहा था। उसे आश्चर्य हो रहा था कि अब तक वह क्यों इतना बेखबर था। वह