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पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/८३

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आखिरी तोहफ़ा
८७
 

तिलिस्म जो मालती ने वर्षों के नाज-नखरे, हाव-भाव से बाँधा था, आज किसी छू-मन्तर से तार-तार हो गया था।

मालती ने उन्हें खाली हाथ देखकर त्योरियॉ चढाते हुए कहा--साड़ी लाये या नहीं?

अमरनाथ ने उदासीनता के ढग से जवाब दिया--नही।

मालती ने आश्चर्य से उनकी तरफ़ देखा--नही! वह उनके मुँह से यह शब्द सुनने की आदी न थी। यहाँ उसने पूर्ण समर्पण पाया था। उसका इशारा अमरनाथ के लिए भाग्य-लिपि के समान था। बोली--क्यों?

अमरनाथ--क्यों क्या, नहीं लाये।

मालती--बाजार में मिली न होगी। तुम्हे क्यों मिलने लगी, और मेरे लिए!

अमरनाथ--नही साहब, मिली मगर लाया नहीं।

मालती--आखिर कोई वजह? रुपये मुझसे ले जाते।

अमरनाथ--तुम खामखाह जलाती हो। तुम्हारे लिए जान देने को मैं हाजिर रहा।

मालती--तो शायद तुम्हें रुपये जान से भी प्यारे हों?

अमरनाथ--तुम मुझे बैठने दोगी या नहीं? अगर मेरी सूरत से नफ़रत हो तो चला जाऊँ!

मालती--तुम्हे आज हो क्या गया है, तुम तो इतने तेज़ मिज़ाज के न थे?

अमरनाथ--तुम बातें ही ऐसी कर रही हो।

मालती--तो आखिर मेरी चीज क्यो नही लाये?

अमरनाय ने उसकी तरफ़ बड़े वीर-भाव के साथ देखकर कहा- दुकान पर गया, जिल्लत उठायी और साड़ी लेकर चला तो एक औरत ने छीन ली। मैने कहा, मेरी बीबी की फ़रमाइश है तो बोली--मैं उन्हीं को दूँगी, कल तुम्हारे घर आऊॅगी।

मालती ने शरारतभरी नजरों से देखते हुए कहा--तो यह कहिए आप दिल हथेली पर लिये फिर रहे थे। एक औरत को देखा और उसके क़दमों पर चढ़ा दिया!

अमरनाथ--वह उन औरतों में नहीं, जो दिलों की घात में रहती हैं।

मालती--तो कोई देवी होगी?

अमरनाथ--मैं उसे देवी ही समझता हूँ।

मालती--तो आप इस देवी की पूजा कीजिएगा?