गुप्त-निबन्धावली चरित-चर्चा काबुल और बदखशांको गये, तो 'आज़ाद' को अपने साथ लेते गये। वहाँसे लौटकर 'आज़ाद' डेढ़ सौ रुपया माहवार पर लाहौरके सरकारी कालिजके अरबी प्रोफेसर मुकर्रर हुए, और जबतक आपके दिमाग़में खलल न आया, बराबर इसी ओहदेपर रहे। अब ७५) माहवार पेंशन पाते हैं । लाहौर में रहते हैं । सन १८८७ में मलकय-मुअजमा७६ विको- रियाकी जुबलीके मौक़ापर आपको शम्स-उल-उलेमाका खिताब मिला था। 'आज़ाद' के खलल दिमागके आरज़ा७७ की निस्वत मौलाना मुहम्मद जका उल्लाह साहब लिखते हैं कि सन १८८७ में हुआ। मगर मास्टर प्यारेलाल साहबसे मालूम हुआ कि सन १८६१ या १८६४ में हुआ। राकिम पिछली बातको सही समझता है, क्योंकि सन् १८८७ में शम्स- उल-उलेमा हुए थे। जुबलीपर उन्होंने एक उम्दा नज्म लिखी थी। सन १८८८ में राकिम “कोहनूर” लाहौरकी एडीटरीसे ताल्लुक रखता था। अगले साल भी लाहौरहीमें था। उस वक्त. 'आज़ाद'- ने एक लाइब्रेरी बनाई थी, जो शहरकी चहारदिवारीसे बाहर बाग़में थी। राकिम वहाँ मौलाना 'आज़ाद' की खिदमतमें हाजिर हुआ करता था। आप भी कभी २ 'कोहनूर' प्रेसमें क़दम रंजा फरमाया करते थे। इन दिनों दीवान जोककी तालीफ ९ जारी थी इसके मुतअल्लिक जो कुछ तलाश व तजस्सस८० आपने किया, इसका भी जिक्र करते थे । एक दिन कहने लगे कि देखो भाई ! नाइन्साफ़ कहते हैं कि मैं खुद गजल लिखकर उस्ताद के नामसे इनके दीवानमें दाखिल करना चाहता हूं। भला इससे फायदा ? अगर उस्तादक बराबर मैं गजलं कह सकता हूं तो इनको अपने नामसे क्यों न छपवाता ?" ग़र्ज कि कभी-कभी बहुत बात होती थीं। उस वक्त इनको कुछ आरज़ा न था। दीवाने ज़ौक़ इसके बाद ही छपकर निकला है । ७६-सम्राज्ञी। ७७-राग । ७८-पधारना । ७२-सम्पादन । ८०-खोज [ ९० ]
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