सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गुप्त-निबन्धावली राष्ट्र-भाषा और लिपि कहता है कि औरोंकीमें तो सींक ही खड़ी रहती है, चिम्मोकीमें मूसल खड़ा रहता है। इस प्रकार खसरूकी दिल्लगीसे बी चिम्मोका भी नाम चला आता है। १५ वीं ईस्वी शताब्दिके अन्तमें सिकन्दर लोधीका राजत्व काल था। उस समय कायस्थ फारसी पढ़-पढ़कर बादशाही दफ्तर में दाखिल हुए। इससे फारसी शब्दोंका हिन्दुओंके मुंहपर जारी होनेका अधिक अवसर मिला। हिन्दी फारसीमें खूब मेल हो गया। अकबरके समयमें हिन्दू मुसलमानोंका और भी मेल बढ़ा। उस समय दरवारके अच्छे-अच्छे मुसलमान अपने ईरानी जुबेदस्तारके साथ डाढ़ियोंको बिदा करके जामे पहनने और खिड़कीदार पगड़ियां बांधने लगे। उधर हिन्दू अमीर यहाँ तक कि राजा-रानी ईरानी लिबास पहनने लगे, फारसी बोलने और मुसलमानी उपाधियोंसे प्रसन्न होने लगे। सिकन्दर लोधीके समयमें भक्तवर कबीरदासजी काशीमें हुए । आप अनपढ़ थे, पर एक महात्मा साधु थे। रामानन्दजीके चेले कहे जाते हैं। अबतक उनका पन्थ चलता है। यद्यपि अब उनके पन्थियोंका वैसा जोर नहीं है, तथापि एक समय खूब जोर होचुका है। कबीरमें विवेचना और कविताशक्ति इतनी थी कि उनकी बनाई चीज किसी पढ़े-लिखे कविकी बनाई चीजोंसे कम नहीं हैं। कई पोथी उनकी कविताकी छप चुकी हैं और अभी उनकी और भी कविता बाकी है। उनका प्रताप ऐसा था कि उनका शरीरान्त होनेके बाद भी सैकड़ों वर्ष लोग आप कविता बना- कर भी उसमें कबीरजीका नाम डालते रहे। इनकी भाषा कहीं-कहीं तो निरी गँवारी है और बेपढ़े आदमियोंके लेखमें जैसी भूलं होती हैं, वैसी भूलें भी हैं, पर कहीं-कहीं बहुत साफ है। जान पड़ता है कि अधिक गँवारी भाषा उनकी प्रारम्भमें थी और आयुके शेष दिनोंकी भाषा बहुत [ १३०