हिन्दी-भाषा सँवरी हुई थी। खैर, वह पढ़े-लिखे न थे, इससे उनकी भाषा किताबी नहीं है। सर्वसाधारणमें जो बोली उस समय बोली जाती थी, उमीमें कबीरजी कविता करके अपने हृदयके भाव प्रकाशित करते थे। उनकी रमैनीकी भाषा बहुत गंवारी है। उसका छन्द चौपाई है। शायद चौपाई छन्दका नाम उस समय रमैनी था। पदोंकी भाषा कहीं-कहीं तो बड़ी गंवारी और कहीं-कहीं बहुत साफ है । जहाँ माफ है, वहां फारसी शब्द बहुत मिले हुए हैं। सबसे साफ उनके दोहे हैं। उनमें खूब फारसी शब्द आये हैं । कहते हैं - द्वार धनीके परि रहे, धका धनीके खाय । कबहूँ धनी 'निवाज' ही, जो दर छाडि न जाय । 'साहब' के 'दरबार' में, कमी काहुकी नाहिं । 'बन्दा' 'मौज' न पावहीं, चूक चाकरी माहिं । मेरा मुजको कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर । तेरा तुजको सौंपते, क्या लागे है मोर । जो तोको काँटा बुरे, ताहि बोइ तू फल । तोको फूलका फूल है, ताको है तिरसूल । दुरबलको न सताइये, जाकी मोटी हाय । मुई खालके साँससों, सार भसम होइ जाय । या 'दुनिया' में आइके, छाड़ि देइ तू एंठ। लेना है सो लेइले, उठी जात है पैठ । मब आये इस एकमें, झार पात फल फूल । कबीरा पोछे क्या रहा, गहि पकरा जिन मूल । चाह घटी चिन्ता गई, मनवा 'बे-परवाह' । जिनको कछू न चाहिये सो 'साहन' पति 'साह' जहाँ दया तहाँ धर्म है, लोभ जहाँ है पाप । [ ६३.१ ]
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