गुप्त-निबन्धावली
राष्ट्र-भाषा और लिाप
जो तू देहिसो कहा स्वामी मैं मूरख कहण न जाई ।
तेरे गुण गावा देहि बुझाई । जैसे मच महि रह्यो रजाई ।
जो किछु होआ सभ किछु तुझते तेरी सम अशनाई ।
तेरा अन्त न जाणा मेरे साहिब में अन्धुले क्या चतुराई ।
क्या हो कथी कथे कथ देखा मैं अकथ न कथना जाई।
जो तुध भावे सोई आखा तिल तेरी बड़ियाई ।
एते कूकर हो 'बेगाना' भौका इस तन ताई।
भगति हीण नानक जो होयगा ता ग्वसमै' नाम न जाई ।
पर आश्चर्य है कि बहुतसे पद गुरु नानकके नामके ऐसे हैं, जिनकी
भाषा बहुत साफ हिन्दी है । या तो इन पदोंमेंसे कुछ पंजाबी शब्द निकल
कर उनकी जगह हिन्दी मिल गये अथवा वह वैसेही साफ बने ।
एक लिख देते हैं-
काहेरे बन खोजन आई ?
सर्व निवासी सदा अलेपा तोही संग समाई।
पुष्प मध्य ज्यों बास बसत है मुकर माहिं ज्यों छाई ।
तैसेही हरि बसें निरंतर घटही खोजो भाई ।
वाहर-भीतर एको जाने यह गुरु ज्ञान बताई।
जान नानक बिन आपा चीने मिटे न भ्रमकी काई ।
इस पदकी भाषा साफ होनेपर भी जोड़-तोड़ और ढङ्ग पंजावी है।
मलिक मुहम्मद जायसी
सोलहवीं ईस्वी सदीमें मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दीका एक बहुत
योग्य कवि हुआ है। उसकी बनाई पदमावत उस समयकी हिन्दी-
का अच्छा नमूना है। जायस अवध प्रान्तमें एक स्थान है। मलिक
मुहम्मदकी हिन्दी भी उसी प्रान्तकी है। ब्रजमें या दिल्लीकी तरफ
पदमावतकी भापा नहीं समझी जा सकती। पर अवध और बैसवाड़े-
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१५१
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