ब्रज भाषा और उर्दू
जिस समय ब्रजभापासे उद्र बन रही थी, उस समय भी कई एक
नमूनोंकी हिन्दी जारी थी। यहाँ तक कि स्वयं उर्दूको स्वच्छ करके
ढालनेवाले मुसलमान कवि भी उन सब नमूनों पर कविता लिखते थे।
यदि मुसलमान लोग अरबी फारमीको अपनी कवितामें अधिक न घुसेडते
और वह अपनी हिन्दी या उर्दूको फारसी अक्षरों में न लिखते, तो आज
हिन्दो-उर्दू में जो भेद है, वह कुछ न रहता। दूसरे शाहे आलमके
समयमें उर्दूकी अधिक उन्नति होनी आरम्भ हुई । उस समयके प्रसिद्ध
सौदाकी कवितासे हम कुछ नमूने दिखाते हैं। यह सौदा कवि अन्तमें
लखनऊ पहुंचा था। वहाँ इसकी और इसके सहयोगियोंकी सहायतासे
उद्देकी चर्चा फली। फारमी और अरबी शादोंसे मिली हुई उर्दका
नमूना-
बनेगी जीनते दुनिया से नहस शक्ल तेरी।
लिबासे जरको पहनकर न हो तू वूमेतिला ।।
कलामे शीरी पै मत जा तू अहले दुनियाके ।
बनाम जहरे हिलाहिल भी होवे है मीठा ।
देवे न तेरे नामसे गुलशन में गर बहार ।
फूलोंको आबोरंगका लेना हो नागवार ।
मौजे गोहर सिपहरसे उधर करे गुजार ।
गर अपने अब्रे फैजसे इतना कहे बिचार ।।
क्रियाओंके सिवा सब शब्द और उनके जोड़ तोड़ एक दम फारसी
हैं। विचार भी फारसी हैं । होवे, देवे, करे, कहे यह सब क्रियाओंका
ढङ्ग पुराना है। दिल्ली आगरेके हिन्दुओंके घरोंमें यह शब्द बोले जाते
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१५९
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