ब्रज भाषा और उर्दू
हैं। पर मुसलमान कम बोलते हैं और लिखनेमें अब गँवारी समझे
जाते हैं। अब होता है, देता है, कहता है इत्यादि बोलते हैं। पण्डित
श्रीधर पाठकजीने 'एकान्तवासी योगी' में इन क्रियाओंका प्रयोग किया
है। जैसे:-
“करके कृपा बतादे मुझको कहाँ जले है वह आगी ।”
किन्तु अब प्रचलित उर्द तो क्या प्रचलित हिन्दीमें भी ऐसा नहीं
बोलते। अब जलै है की जगह जलती है, लिखना पड़ता है। और
भी कई शब्द पहले उर्द में लिखे जाते थे, पर अब छोड़ दिये गये हैं:--
घोड़ा ले अगर नौकरी करते हैं किसूकी,
तनखाहका फिर आलमेवाला पै निशां है ।
आगेसे तोबड़ा उसे दिखलाये था सईस ।
पीछे नकीब हांके था लाठी से मार मार ।।
पहिये लगाओ इसके कि ता होवे यह खाँ !
या बादबान बाँध पवनके दो इखतियार ॥
'किसू' की जगह अब 'किसी' बोला जाता है। 'पवनके दो इखति-
यार'की जगह 'हवाके इखतियारमें दो' कहा जाता है। इसके सिवा इस
नमूनेसे यह भी देखना चाहिये कि उर्दूवालोंके हाथमें पड़कर हिन्दीने
क्या-क्या शकलं बदलीं ! कहीं-कहीं सौदाकी कविता साफ हिन्दी भी
हो जाती थी-
ठग न तनहा चढे हैं उसकी आन। मिल रही है उचक्कांसे भी साज ।।
सिर पे यह देखें जिसके अच्छी शाल । गोया वह उसके बापका है माल ।।
गश्त जब उसका फिरता आता है। यही नरसिंगया बजाता है।
किसूका गठकटी वतरी है। कोई भड़वा उठाई गीरा है।।
हैंगे अज बस यह हाथके चालाक । डाले हैं उसकी आँखोंमें भी खाक ।।
दस रुपये वह मुझे दिलाते हैं । कहिये अब आपका क्या लगाते हैं ।।
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१६०
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