पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ब्रज भाषा और उर्द उसे जिन्दगी जगमें भारी लगे ।। हमन है इश्कके माते हमनको दौलतों क्या करे ।। हमनको खुशक रोटी बस, कमरको एक लँगोटी बस । सिरपर एक टोपी बस, हमनको इज्जतां क्या करे ।। कवा शाला वजीरोंको, जरी रजवफ्त अमीरोंको, हमन जैसे फकीरोंको, जगतकी नेमतों क्या रे ॥ वे वफाई न कर खुदासों डर। कज अदाई न कर खुदासों डर ॥ इन सबमें कुछ-कुछ क्रियाओंकी नई तराश-खगशके साथ कितने ही हिन्दी शब्द ऐसे हैं, जिनको अब उटू वालोंने छोड़ दिया है । हमन'की जगह 'हम' रह गया है। नेमता, इज्जता आदि शब्द अब नहीं बोले जाते। मुसलमानोंकी भाषाके संसर्गसे उस समय हिन्दीका यही ढंग था। इस प्रकारको भाषामें केवल कविताही होती थी, गद्यका नाम- निशान तक न था। दूसरे शाहआलमके समयमें उर्दूकी कुछ अधिक उन्नति हो गई थी। बहुतसे उर्दूके अच्छे-अच्छे कवि उस समय मौजूद थे। इस समय ब्रज- भाषाकी क्रियाओंसे उर्दूको क्रियाओंका ढंग तो अलग होही गया था, साथही हिन्दी-संस्कृतके शब्द घटाकर मुसलमान लोग उसमें अरबी- फारसी बहुत भरने लगे थे। इसकी जरूरत इसलिये पड़ी कि मुसलमान इस नई भाषाको अपनी फारसीके ढंगपर घसीट ले गये। फारसी- [ १४७ ]