पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१७१

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गुप्त-निबन्धावली राष्ट्र-भाषा औरलिपि हिन्दीको उन्नति-उन्नति पुकार रहे हैं क्या उनमेंसे हर-एकको हरिश्चन्द्र- ग्रन्थावलीकी एक-एक प्रति अपने घरमें देखनेका सौभाग्य प्राप्त है ? केवल गाल बजानेसे भाषाको उन्नति नहीं होती है। भाषाकी उन्नति- के लिये लेखक चाहिये । लेखक बनानेके लिये पाठक चाहिये और पाठक होनेके लिये मातृ-भाषा पर अनन्त अनुराग, अनन्त प्रेम, अनन्त भक्ति चाहिये। जबतक इन वस्तुओंका अभाव रहेगा तबतक मातृ-भाषाकी उन्नति-उन्नति चिल्लाना केवल गाल बजाकर भूग्य बढ़ाना है। यदि सचमुच हिन्दीको उन्नतिकी कामना आपके हृदयमें चुभ गई है, तो कमर कसकर खड़े हो जाइये। आपही आप प्रतिज्ञा कीजिये --- 'यत्नं साधयं वा शरीरं पातयंवा।' वह देखिये प्रति वर्ष कितनेही युवक अंग्रेजी विद्याकी बी० ए०,-एम० ए० परीक्षा पास कर रहे हैं। उनके हृदयमें हिन्दीका रस प्रवेश कराइये। अब वह न हिन्दी पढ़ते हैं, न हिन्दी लिखते हैं। देशमें जो थोड़से लोग हिन्दी लिखते हैं, उनमेंसे बहुतही थोड़ लोग लिखनेकी योग्यता रखते हैं। जितने लोग हिन्दी पढ़ते हैं, उनमेंसे बहुतही थोड़ लोग पढ़ी हुई बातको समझनेकी शक्ति रखते हैं। यदि सचमुचही आप हिन्दीकी उन्नति चाहते हैं तो यह दोष दूर करनेकी चेष्टा कीजिये। दोप दूर करनेका उपाय केवल पड़े हुए लोगोंसे लिखानेके साथ उनकी लिखी हुई चीज बिकवानेकी चेष्टा करना है। वह चेष्टा धनके बिना नहीं हो सकती। यदि हिन्दीपर सचमुच अनुराग हुआ हो तो हिन्दीकी उन्नतिके लिये धन संग्रह कीजिये, सुयोग्य सुपण्डितों- से हिन्दीको प्रयोजनीय पुस्तकं लिखाकर संगृहीत धनसे खरीद लीजिये। वह पुस्तकं देशमें बांटकर देशवासियोंमें हिन्दी पढ़नेका शौक फैलाइये । तभी मातृभाषाकी उन्नति होगी, तभी हिन्दी अपने उचित स्थानको प्राप्त कर देशवासियोंको अपने फल-फूल-पत्र-पल्लवोंसे सुशोभित होकर बहार दिखा सकेगी। -भारतमित्र ६-४-१९०१ ई० १५४ ]