पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/१७२

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भारतकी भाषा अवासी" बङ्ग-भाषाका मासिक-पत्र है। प्रयागसे निकलता है। एक बार उसकी बात हम कह चुके हैं। बड़े आनन्दका विषय है कि वह हिन्दी भाषाकी कुछ-कुछ चर्चा करने लगा है। गत अग्रहायण मासकी संख्यामें उसने “हिन्दी सामयिक साहित्य" के शीपकसे कुछ हिन्दी-समाचार-पत्रों और हिन्दी-भाषाकी आलोचना की है, उसमें दो एक बात विशेष ध्यान देने योग्य हैं। ___ बङ्गभाषाके समाचारपत्रोंमें हिन्दीकी चर्चा कभी नहीं होती, यह बात हम कई बार कह चुके हैं। इसका कारण यही है कि बङ्गाली हिन्दी-भापाकी कुछ कदर नहीं करते। न वह इसे सीखनेके योग्य समझते हैं, न सीखते हैं और न इसके विषयमें विशप कुछ जानते हैं। इसपर प्रवासी कहता है.---"देश व्यापक भाषाके सम्बन्धमें बङ्गदेशसे बाहर कहाँ क्या होता है, यह न जाननेके कारण शायद बङ्गला कागजों- में इस विषयमें कुछ नहीं लिखा जाता है। पर अब उनको अपना- अपना मत प्रकाश करना चाहिये।” आशा है कि जब एक अच्छे हाथोंसे निकला हुआ बङ्गला कागज ऐसा कहता है तो अन्यान्य बङ्गला कागज भी इस ओर ध्यान दंगे। प्रवासीने बम्बईके "भारतधर्म" मासिक-पत्रकी बात कही है। उक्त पत्र हिन्दी, मराठी और गुजराती तीन भाषाओं में निकलता है। हिन्दी और मराठी दोनों भाषाएँ नागरीमें लिखी जाती हैं। गुजराती अक्षर कुछ भिन्न होते हैं, पर बहुत भिन्न नहीं। इसपर प्रवासीको एक युक्ति सूझी है। वह कहता है-“एकदम एक व्यापक भाषा होना कठिन जान पड़ता है। ऊपर जैसे एक त्रैभाषिक पत्रकी बात कही गई है, [ १५५ ]