एक लिपिकी जरूरत भारतमित्रकी गत दो संख्याओंमें हम माननीय जष्टिस सारदाचरण- मित्र महोदयके उस लेखका पूरा अनुवाद छाप चुके हैं, जो आपने हालमें कलकत्ता यूनिवर्सिटी इन्सटिट्यूटमें सुनाया था । हम आशा करते हैं कि हमारे विचारशील पाठकोंने उसे ध्यानसे पढ़ा होगा। जिन सज्जनोंने उसे न पढ़ा हो उनसे हमारा अनुरोध है कि वह उसे एकबार खूब ध्यानसे पढ़। लेखक महोदयने बड़ी सुन्दर युक्तियों और अपने दीर्घ-कालके अनुभवसे भलि-भांति स्पष्ट कर दिया है कि अब भारतवर्ष भरमें एक लिपिके जारी होनेका समय आगया और वह लिपि देवनागरी ही है, जो सारे भारतवर्षमें जारी हो सकती है। केवल हिन्दुस्थानहीमें नहीं, लेखक महोदय नागरी लिपिका प्रचार-ब्रह्मा, चीन, जापान और लङ्का आदिमें भी चाहते हैं। अक्षरोंके विषयमें बहुतसे पण्डितोंका मतभेद है। बहुत लोग देव- नागरी अक्षरोंको बहुत पुराने नहीं समझते हैं। वह बताते हैं कि, इससे पहले और और प्रकारकी लिपियाँ जारी थीं। बहुतसे बङ्गालियोंको इस बातका हठ है कि उनके बङ्गाक्षर देवनागरी अक्षरांसे पुराने हैं । जष्टिस सारदाचरण मित्रने इन सब बातोंकी बहस छोड़ दी है और यह दिखाने- की चेष्टा की है कि हिन्दुस्थानमें इस समय जितनो लिपियाँ जारी हैं, उन सबमें नागरी सबसे सुगम, सुन्दर और अधिक फैली हुई है और वही अधिक फैल सकती है। अपनी इस चेष्टामें वह सफल मनोरथ हुए हैं। उन्होंने केवल यही नहीं स्पष्ट कर दिया कि नागरी हिन्दुस्थान भरकी लिपियोंमें सर्वश्रेष्ठ है, वरञ्च यह भी दिखा दिया कि पृथ्वी भरमें देव- नागरीके समान शुद्धलिपि और कोई नहीं है । [ १६० ]
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