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गुप्त-निबन्धावली चरत-चर्चाि पढ़ते रहे। पर इन पोथियों में प्रतापजीका मन न लगा, तब वह अंग्रेजी म्कूलमें दाखिल किये गये। वहां उन्होंने कुछ सीखा जरूर, पर केवल मेधाके प्रतापसे। पढ़नेमें परिश्रम उन्होंने कभी न किया और न कभी जी लगाकर पढ़ा। इसीसे उनकी पढ़ाई सब प्रकार अधूरी रही, तिसपर भी वह अंग्रेजी ग्वामी बोल सकते थे। आध-आध घण्टा, घण्टाघण्टा, बराबर अंग्रेजीमें बात किये जाते थे; अंग्रेजी अखबार पढ़लेते थे, कभी इच्छा करते तो कुछ अनुवाद भी कर लेते थे, पर बड़ी अनिच्छासे । अंग्रेजी पोथियों और अखबारोंके पढ़ने में वह जरा मन न लगाते थे । कोई इसके लिये दबाता था तो भी परवाह न करते थे । मुंह बनाके कागज या पोथी फक देते थे। यदि वह माल दो साल जी लगाकर अंग्रेजी पोथियाँ या अखबार पढ़ते तो अच्छे अंग्रेजी-पढ़ोमें उनकी गिनती होती। यही हाल उनकी संस्कृतका था। छः-छः और आठ-आठ सालसे जा विद्यार्थी कौमुदी रटते थे अथवा जिन पण्डितोंको कथा कहते युग बीत गये थे, उनके साथ हमने प्रतापनारायणजीको बात करते देखा है। यह उनसे कुछ जल्दी बोलते थे और अच्छा बोलते थे, पर मचि आपकी संस्कृत पुस्तकोंमें भी वैमीही थी, जैमी अंग्रेजी पुस्तकोंमें। उर्दू में भी वह बन्द न थे, उर्दू में उनकी बहुत-सी कविता मौजूद हैं । गजलं लिखते थे, लावनियाँ लिखते थे, मसनवी लिखते थे। उर्दू में उनका एक छोटा-सा दीवान भी देखा था। फारसी गजलोंपर अपने उर्दू मिसरे लगाकर उनसे मुखम्मस वगैरह बनाते थे । गजलके हर टुकड़ेमें दो-दो चरण होते हैं, उनपर तीन-तीन चरण और जोड़, मुखम्मस बनानेकी ति उर्द में बहुत प्रचलित है। प्रतापने फारसी गजलोंपर अपने मिसरे लगा-लगाकर बहुतसे मुखम्मस बनाये थे। उनमेंसे कितने ही ऐसे थे कि सुनकर हँसते-हँसते आतोंमें बल पड़-पड़कर जाते थे। ऐमी कविताएँ अधिक उनको जबानी याद थीं। शायद अब उनका [ १२ ]