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पं० प्रतापनारायण मिश्र मिलना भी कठिन है। सारांश यह है कि फारसी-उर्दू कविताको वह खूब समझते थे। उर्दू में कविता करते थे और फारसीमें भी कभी-कभी कुछ कहलेते थे। फारसीकी कई कविताओंका उन्होंने हिन्दी अनुवाद किया है। इस प्रकारके अनुवाद बहुधा दिल्लगीके लिये किया करते। __ जिन दिनोंमें स्वामी दयानन्दजीके नामकी बड़ी धूम-धाम पड़ी थी. उन दिनों मुरादाबादमें मुन्शी इन्द्रमणिके नामकी भी बड़ी धूम मची थी। आदिमें स्वामीजीका बहुत कुछ मेल भी था। उन दिनों एक ग्वत्री मुसलमान हो गया था। उसने हिन्दुओंके विरुद्ध उद्देमें एक पोथी लिखी थी। मुंशीजीने उत्तरमें एक फारसी पुस्तक लिखी। तब दूसरे मुसलमान उस नये मुसलमानकी हिमायतको खड़े हुए। मुंशीजीने उनकी पोथियोंके उत्तरमें भी कई पोथियां लिग्वीं। यह सब पोथियां पण्डित प्रतापनारायणने पढ़ डाली थीं। एक बार इन्द्रमणि कानपुर गये थे, प्रताप उनसे मिलने गये और वहां उन्होंने अपनी कविताएँ सुनाईं, जिनका फारसीसे हिन्दीमें अनुवाद किया था। वह अनुवाद प्रायः उन कविताओंके थे जो मुन्शीजीने मुसलमानोंके उत्तर में लिखी थीं। मुंशीजी सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। आपने प्रतापसे पूछा कि फारसी कहां तक पढ़े हो ? प्रतापने जवाब दिया-'तोहफतुल इसलाम और 'पादाशे इसलाम' तक। मुंशीजी सुनकर हँस पड़े। हँसनेका कारण यह था कि उक्त दोनों फारसीकी पोथियां यही थीं, जो मंशीजीने मुसलमानोंके उत्तरमें लिखी थीं। हिन्दीका प्रतापनारायणको बड़ा शौक था। हिन्दी किताब और हिन्दी अखबार वह दिन रात पढ़ा करते थे। जो पोथियां या अखबार रद्दी समझके फेंक दिये जाते थे, उन्हें भी वह पढ़ डालते थे। जिस समय हमने उनको देखा, उस समय उनकी शारीरिक अवस्था अच्छी न [ १३ ]