गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास सज्जनसिंहने उसपर प्रसन्न होकर पारितोषिक देकर उसका आदर बढ़ाया था। बारह साल उक्त पत्र चलकर सन १८६० ई० में बन्द हुआ। दूसरे दौरके अखबारों में वह बड़ा तेजस्वी अखबार था। दुःख यही है कि बहुत ग्राहक उसे न मिले और जो मिले थे 'वह ठीक रीति पर मूल्य नहीं देते थे । लाचार पत्र बन्द करना पड़ा । बन्द होनेके एक डेढ़ साल पहले- से उसके गिरनेके चिन्ह दिखायी देने लगे थे । उस समय पत्रकी ऊपरी सुरतमें तो कुछ फर्क न आया था, पर भीतरी दशा बिगड़ चली थी । सम्पादकका मन अच्छे लेखोंके लिखनेमें नहीं लगता था । इधर-उधरकी नकलसे अधिक पत्र भरा जाता था। जिसका पत्र बन्द करनेकी सूचना देते समय दुःखके साथ सम्पादक महोदयने उल्लेख भी किया था। पत्र बन्द होनेके योग्य न था। इससे सबने उसके बन्द होनेपर बहुत कुछ दुःख प्रकाशित किया। पर केवल दुःग्य प्रकाशित करनेसे हिन्दी अखबारोंकी दशाका परिवर्तन हो नहीं सकता। पत्र बन्दही रहा। पण्डित सदानन्द मिश्रका भी पत्र बन्द होनेके बाद कई एक सालके अन्दरही शरीरान्त हो गया। उचितवक्ता पण्डित दुर्गाप्रसादने एक तोसरे हिन्दी समाचार पत्रकी नींव डाली । यह उनका खास अपना पत्र था। इसका नाम था "उचितवक्ता" । यह पत्र निकालकर पण्डित दुर्गाप्रसादजीने दूसरे दौरेके पत्रोंमें एक नई रंगत पैदाकर दी थी। उस समयके नामी लेखक इसमें बराबर लेख लिखा करते थे। स्वर्गीय बाबू हरिश्चन्द्र भी कभी-कभी लिखा करते थे। फिर पण्डित दुर्गाप्रसादजी स्वयं एक तेज सम्पादक और जबरदस्त लेखक थे। उनके धुआंधार लेख कभी-कभी गजब किया करते थे। दिल्लगीकी फुलझड़ियां और छेड़छाड़के पटाखे छोड़नेमें वह किसी उत्सव या पर्वका खयाल न रखते थे। मारतजीवनसे उचितवक्ताकी वैसीही छेड़छाड़ [ ३३४
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