पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/३५२

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हिन्दी-अखबार चलो थी जैसी लखनऊके उदृ अग्वबार अवधपञ्चसे मेरठके तूतियेहिन्दकी। मीठी-मीठी छेड़ करने, व्यङ्ग विद्रप करने-मुंह चिढ़ानेमें उचित- वक्ता पञ्चका काम करता था। किस किससे उसकी न छिड़ी ? भारतमित्रसे चली, सारसुधानिधिसे खटपट हुई। कितने ही अखवारोंसे जब तब चवचख चली। अन्तम हिन्दोस्थानसे कुछ ऐसी कहा सुनी हुई कि बदमजगी तक नौवत पहुंची। उस समय उचितवक्ता वीचमें एक बार बन्द होकर फिर जारी हुआ था । ____ इस पत्रमें कई गुण विशप थे। मूल्य खूब कम था। एक बार रायल एक मोटपर छपता था और केवल एक पैसेमें बेचा जाता था । फिर छपाई-सफाई कागज आदि सब वान इसकी अच्छी होती थीं। इससे बढ़कर इसके तीरव और चटपटे लेख और चुटकले होते थे, जो किसीको माफ नहीं करते थे। एक बार इसके ग्राहक भी दो डेढ़ हजारके लगभग हो गये थे। यह बात उस समय तक किसी पत्रको हामिल नहीं हुई थी। इतनेपर भी यह पत्र गिरा। उसका कारण था कि इसके सुयोग्य सम्पादक पण्डित दुर्गाप्रमादजी पत्रको छोड़कर काशमीर चले गये थे। पीछेसे पत्र ढीला पड़ गया। अन्तको बन्द करना पड़ा। दूसरी बार सन १८६४ ई० में जारी किया गया था। बहुत अल्प दिन चला। कारण यह कि जी लगाकर चलायाही नहीं गया। खाली खिलवाडसी की जाती थी। फल यह हुआ कि फिर बन्द करना पड़ा। ____ इसके बाद पण्डित दुर्गाप्रसादजीने लिखने पढ़नेसे एकदम हाथ खंच लिया। कुछ दिन बाद प्रस भी बेच दिया। इसके बाद उनपर विपदका समय आया ! उनके कुटुम्बके कितनेही अच्छे-अच्छे लोगोंका देहान्त हो गया। उनको सहधर्मिणीका भी वियोग हो गया ; कुटुम्ब भरमें केवल तीन भाई बचे हैं। दो साल हुए तीनों भाई दिल्ली चले गये थे। तबसे लौटकर कलकत्ते नहीं आये हैं। [ ३३५ ]