गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास राजा साहबने वहां तार लगवा दिया है और और भी बहुतसे प्रबन्ध किये हैं, तो भी उस बस्तीको क्या करें। पढ़े लिखे वहां राजा साहवके कर्मचारियोंके सिवा दस पांच आदमी भी कठिनाईसे मिलंगे। वहांके निवासियोंमें धनी और ऊंची जातिके लोग बहुतही कम हैं। बाहरके दो चार महाजन दुकानदार हैं। उन्हींको जो चाहो समझ लो। ऐसे स्थानसे दैनिक-पत्र क्या माताहिक-पत्र भी चलना कठिन है । किन्तु राजा साहबको कालाकांकर बहुत प्यारा है, इसीसे बहुत रुपये खर्च करके जोरसे कागजको चलाते हैं। इसी कारण दैनिक पत्रोंमें जो बात होना चाहिये, वह इस कागजमें कम होती हैं। इसका फल यही होता है कि पत्रका सारा बोझ राजा साहब पर है। किमी अच्छे शहरसे यह निकलता तो अपना बहुतसा बोझ आप सम्हाल लेनेके योग्य हो जाता और जो बात दैनिक समाचार-पत्रोंमें होनी चाहिय, वह होतीं। हम यह भली भांति जानते हैं कि इन बातोंमें किसी प्रकारका हेरफेर नहीं हो सकता है। तथापि जब अखबारोंकी आलोचना करने बैठे हैं, तो हमें अपनी राय जो कुछ हो प्रकाश कर डालना चाहिये । विशेषकर जब हमारा इस पत्रसे दो वर्ष तक बहुत गहरा सम्बन्ध रह चुका है। ऐसी दशामें हमें उक्त पत्रके सम्बन्धमें अपने मनका कोई भाव छिपा नहीं रखना चाहिये। पहले कहा जाचुका है कि कालाकांकरके दैनिक हिन्दीपत्र “हिन्दोस्थान से कोई दो वर्ष हमारा भी सम्बन्ध था। उसका कारण हुई थी, पण्डित श्रीमदनमोहन मालवीयजीकी कृपा। सन १८८६ ई० के आरम्भमें पण्डित दीनदयालुजी शर्माक उद्योगसे श्रीभारतधर्म महा- मण्डलका दूसरा महाधिवेशन श्रीवृन्दावनधाममें हुआ था। उस समय शीतकाल था। मालवीयजी महोदय उन दिनों “हिन्दोस्थान" के सम्पादक थे। आप भी महामन्डलमें पधारे थे। हमारा सम्बन्ध उस [ ३४६ ]
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