पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/३६९

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गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास "हिन्दोस्थान" की कई एक बात ध्यान देने और अनुकरण करनेके योग्य हैं । वह जब जो बात लिखता है, खूब सरल स्पष्ट रीति पर लिखता है। उसकी बहुत ही सीधी चाल है। व्यङ्ग, कटूक्ति, कटाक्ष मानो वह जानता ही नहीं। आपसको छेड़-छाड़से भी वह खुब बचता है। यदि कभी किसीसे छिड़ भी जाती है, तो लिखने में सभ्यता और गम्भीरताका बड़ा ध्यान रखता है। किसी पत्रसे यदि कोई खबर या लेग्य उद्धृत करता है तो उसका साफ नाम जाहिर करनेमें कभी कंजूसी नहीं करता। उसके नामको समूचा हजम करने अथवा उसके ईशारे बनाकर लिखनेकी उसे आदत नहीं। हिन्दीके समस्त अखबारोंको ध्यानसे देख जाओ, यह गुण पूर्ण रीतिसे केवल हिन्दोस्थानहीमें मिलेगा। पर दो एक बातोंके लिये हिन्दोस्थानकी निन्दा भी होती है और हंसी भी होती है। एक तो उसने लिपिमें अपनी ओरसे जो तराश- खराश की है, वह ठीक हुई नहीं। उसके म्यनेजर, यडिटर, यसिष्टष्ट, प्यसआदिशब्दोंको जो नहीं जानते, वह ठीक पढ़ नहीं सकते। और जो जानते हैं, वह हंसते हैं। इस प्रकारकी तराश-खराशकी नीव सन १८६१ ईस्वीसे पड़ी है । हम जिस समय “हिन्दोस्थान" से सम्बन्ध छोडनेको थे, उन दिनों राजा रामपालसिंह महोदयने हिन्दीवालोंको अंगरेजी सिखानेके लिये “स्यल्फ टीचिङ्ग बुक” के नामसे एक पोथो अंगरेजी में तय्यार करना आरंभ की थी। उसीके प्रसादसे इम विचित्र लिपिकी नीव हिन्दोस्थान- पत्रमें पड़ी । राजा साहबने अपनी समझमें यह चाल भलेके लिये चलाई है, जिससे अंगरेजी शब्द हिन्दी लिपिमें शुद्ध लिखे जावं और उनका शुद्ध उच्चारण हो, पर इससे यह मतलब तो हासिल नहीं होता, उल्टी लिपिकी खराबी होती है। इसके लिये हिन्दोस्थान पर हिन्दी अखबारोंने कई बार कटाक्ष किये हैं और उसकी दिल्लगी उड़ाई है । पर उसने अपनी चुपसे सबको परास्त कर दिया । खैर, आज हम उसूलके साथ दो-चार [ ३५२ ]