पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/३८

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साहित्याचार्य पं० अम्बिकादत्त व्यास कौमुदी पढ़ने लग गये थे। कथा आप ऐसी सुन्दर कहते थे कि मबका मन मोह लेते थे। कविता-शक्ति इनकी इतनी अद्भुत थी, कि स्वर्गवासी बाबू हरिश्चन्द्र जी भी मोहित होगये थे। “विक्टोरिया रानी" ममस्याकी पूर्ति व्यासजीने इतनी सुन्दर की थी, कि बाबू हरिश्चन्द्रजीने अपने "कवि-वचनसुधा" पत्रमें उनकी बहुत कुछ प्रशंसा करके कहा था, कि इम विलक्षण बालक-कविकी बुद्धि भी विलक्षण है, और अवस्था केवल १२ वर्षकी है। इसी उमरमें एक वृद्ध नैलङ्ग अष्टावधानने उनको “सुकवि"की उपाधि दी। उस ममय बाबू हरिश्चन्द्रजी भी मौजूद थे। उन्होंने “काशी कविता-वर्द्धिनी" मभासे यही उपाधि मंजूर कराढ़ी। ___इसी प्रकार व्यामजीकी उत्तरोत्तर उन्नति होती थी। संवत १६३७ में उन्होंने काशी गवर्नमेण्ट कालिजकी आचाय-परीक्षा पास कर माहित्याचार्यकी पदवी प्राप्त की। परन्तु इसी वर्ष उनके पूज्य पिताका देहान्त होगया। गृहस्थका बहुत जञ्जाल उनपर आपड़ा। तिसपर भी विद्याका अनुराग बढ़ताही गया। कवितामें उनका अभ्यास इतना बढ़ा कि एक घड़ीमें सौ श्लोक बनाकर “घटिका-शतक की उपाधि प्राप्त की। “काशी ब्रह्मामृत-चर्पिणी" सभासे संवत १९४० में व्यासजी मधुबनी मंस्कृत स्कूलमें नियत हुए। यहींसे वह बिहारियोंके प्रीति-पात्र हुए। यहाँपर उन्होंने अपनी मधुर वक्तताके वलसे कितनीही धर्मसभाएं बना डालीं। उनकी वक्तृताकी बिहार-प्रान्तमें धूम पड़गई। इसके दो माल बाद बाँकीपुरके कालिजमें इनके धूमधामी व्याख्यान हुए। उसी ममय छपरा आदिमें भी उन्होंने धमकी धूम मचाई। फिर इसके दो माल बाद आपने भागलपुरमें धमकी धूम मचाकर धर्म-विरोधियोंके हौसले पस्त किये। संवत १९४४ में आप हरिद्वारके श्रीभारत-धर्म महामण्डलके सबसे पहिले अधिवेशनमें पधारे। वहां आपकी वक्तृताको सुनकर सब लोग प्रसन्न हुए ! कर्नल अलकाट माहबने उनकी वक्तृता ठीक ठीक