पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/३८१

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गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास % E समाचारपत्रोंको स्वाधीनता न देनेमें पुराने विचारके उच्च कर्मचारी अवश्यही कुछ न कुछ भलाई समझते होंगे। पर अब वह समय नहीं है कि रियासतोंके लोग उन्हीं पुराने विचारोंपर अड़े बैठे रहें। अब ऐसा समय आगया है कि देशी रईस भी अपने अखबारोंको स्वाधीनता द और उनसे लाभ उठाव । अग्वबारोंकी स्वाधीनतासे देशी रियासतोंकी प्रजाको बहुत कुछ लाभ पहुंच सकता है। जब अगरेजी गवर्नमेण्टकी देखा देखी देशी रियासतोंने अपनी रियासतोंमें अखबार जारी किये हैं तो अंगरेजी गवर्नमेण्टकी रीति पर उन अग्वबारोंको स्वाधीनता देना चाहिये । देशी रियासतोंके विषयमें जो यह शिकायत सुनी जाती है कि ज़बर्दस्त मारे रोने न दे-इसको दूर कर देना चाहिये । अखबार कोई गनीम नहीं है कि जो म्वाधीन होकर रियासतको कुछ हानि पहुंचावे, वरञ्च यदि उसकी ठीक-ठीक सहायता की जाय और उसे उन्नत होनेके लिये अवसर दिया जाय तो वह राज्यके एक बहुतहीं कामकी वस्तु बन सकता है। जब एक विदेशीय गवर्नमेण्ट इस देशकी प्रजाको प्रस- सम्बन्धी स्वाधीनता देती है, तब देशी राजा महाराजा अपनी देशी प्रजाको म्वाधीनता न दं. यह कैसे दुःखकी बात है । जोधपुर राज्यके कई एक प्रतिष्ठितसज्जनोंसे हमने सुना कि वर्तमान ईडरनरेश महाराज सर प्रतापसिंह जब जोधपुरके मदारुलमोहाल | तो बहुधा कहते थे कि अखबार में जो जी चाहे सो लिखा जाय हम आज्ञा देते हैं। चाहे हमारी ही निन्दा क्यों न लिखी जाय । पर श्रीहुजूर साहवके विषयमें ( स्वर्गीय जोधपुर महाराज जसवन्तसिंहसे मतलब है, जो महाराज प्रतापसिंहजीके बड़े भाई थे) कोई अप्रतिष्ठाका शब्द न लिखा जाय, उसे मैं न सह सकंगा। पर दुःख यही है कि श्रीमानने अपने इस वाक्यको कभी कार्यमें परिणत करके नहीं दिखाया । इन शब्दोंको वह मुंहसे ही कहते रहे, राज्यमें उनके विपयमें घोषणा कभी नहीं प्रचार की। [ ३६४ ]