पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४०५

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गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास उसे एक योग्य सम्पादकके हाथोंमें सौपेंगे। सुना है बाबू संसारचन्द्र सेन और ठाकुर उमरावसिंह कोटला, समाचारपत्रोंके बड़े प्रेमी हैं। उनके रहते भी जयपुर गजटकी यह दशा है तो सुधारनेकी आशा कब तक की जाय ? ___ कलकत्तेकी मारवाड़ी-एसोसिएशनवालोंने अपने अभिनन्दन पत्रमें जयपुर दरबारसे प्रार्थना की थी कि आप अपने राज्यमें उर्दूकी जगह हिन्दीका प्रचार कीजिये। दरबारकी तरफसे उत्तर मिला कि जयपुरमें हिन्दीके लिये कुछ रोक टोक नहीं है। क्या दिव्य उत्तर है ! प्रार्थी सुनकर चकित हो गये। जयपुरके जिन उच्च कर्मचारीको मारफत यह उत्तर मिला था, वह खूब जानते थे कि जयपुरकी. कचहरियोंमें उद्देहीका अमल दखल है, तिस पर भी वह इस उत्तरसे कुछ विचलित न हुए। पराधीनताने जब पढ़े-लिखे लोगोंके चित्त रिया- सतोंमें ऐसे छोटे बना रखे हैं तो वहां किसी बेहतरीके लिये क्या आशा की जावे, पर करनी पड़ती है क्योंकि मनुष्यकी आशा उसे प्राण रहते तक लुभाया करती है। हिन्दीभाषामें कितनेही समाचारपत्र निकले। यदि उनमेंसे आधे भी जीवित रहते तो उनकी संख्या कोड़ियों होती। पर जमानेकी आबहवा उन्हें मवाफिक न आई। वह पैदा होनेक थोड़े-थोड़े दिनोंके बाद मरते गये। उनकी बात एक अलग लेखमें कही जावेगी। आजके लेखमें उन पत्रोंकी बात कहते हैं, जो जारी हैं और लष्टमपष्टम अपनी रक्षा करते चले आते हैं। उनमेंसे एक प्रयागराजका प्रयागसमाचार है। इस समय उसका २४ वां वर्ष चलता है। इस पत्रके जन्मदाता स्वर्गीय पण्डित देवकीनन्दन तिवारी थे। उन्होंने इस पत्रको छोटे-छोटे दो पन्नों पर निकाला था। दाम एक संख्याका एक पैसा था। [ ३८८ ]