हिन्दी-अखबार - हाईकोर्ट में मुकदमा गया। उस समय सर कोमर पेथरम साहब कलकत्ता हाईकोर्टके चीफ जष्टिस थे। उनकी अदालतमें यह मुकदमा पेश हुआ। जूरियोंमेंसे अधिकने बंगवासीको दोपो कहा, पर कुछने निर्दोष भी कहा । उदार-हृदय चीफ जष्टिसने कहा कि जब तक सब जूरियोंकी एक राय न हो मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं इन जूरियोंको हटा देता हूं, नये जूरी लेकर फिरसे विचार होगा। इतनी मुहलत मिल जाने पर बंगालके बहुतसे शिक्षित लोगों और अखबारवालोंने एकत्र होकर सरकारसे बंग- वासीको छोड़ देनेकी प्रार्थना की। लार्ड लैंसडौन और छोटेलाट सर चार्लस इलियटकी सरकार हाईकोर्ट के फैसलेसे ढीली हो चुकी थी, उसने वह प्रार्थना स्वीकार की। बंगवासी एक हलकीसी माफी मांगकर बच गया। गरीब अखबारवालोंका सरकारके पल्लेमें फंसना शेरके पंजेमें फंसना है, बंगवासी पर वह बड़ी भारी विपद आई थी पर हिन्दी बंग- वासीकी उससे बड़ी शुहरत हो गई। यद्यपि दोनों कागज अलग २ थे। पर उस समय अधिक लोग यही समझते थे कि “बङ्गवासी" और "हिन्दी बङ्गवासी" दोनों एकही वस्तु हैं, केवल भाषाका भेद है। इसी खयालसे हिन्दी बङ्गवासीका उस समय बड़ा नाम हुआ। हिन्दी बङ्गवासीके निकलनेसे दोही सालके अन्दर कई एक हिन्दी अखबार बन्द होगये, कई एककी कमर टूट गई। जब २) सालमें एक बड़ा और अच्छा अखबार मिलने लगा तो छोटे छोटे अधिक दामोंके अखबार कौन लेता ? यही कारण दूसरे हिन्दी अखबारोंके बन्द होजाने या दब जानेका हुआ। हिन्दी अखबार वालोंमें इस बातका किसीको ध्यान भी न था कि २) सालमें एक बहुत बड़ा अखबार चल सकता है। हिन्दीवाले क्या बंगलावाले भी कई एक साल पहले नहीं जानते थे कि इतने थोड़े दामोंमें एक इतना बड़ा अखबार चल सकता है। केवल बंगवासी वालोंकोही इस बातका अनुभव था। [ ३९५ ]
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