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पाण्डे प्रभुदयालु बातोंपर बुद्धि बड़ी तीखी पाई थी। समझनेकी शक्ति ग्वब थी। विशेषकर कविता समझने में बड़े तीब्र थे । म्वयं कविता कर भी मकते थे । बड़े परिश्रमी थे । पुस्तक खूब पढ़ते थे । हिन्दी-बङ्गवासीमें वह कोई नौ माल रहे। उन्होंने आरम्भहीमें संस्कृतकी एक ज्योतिषकी पुस्तकका हिन्दी अनुवाद किया । हिन्दीमें उनकी कहाँ तक पहुंच थी, यह उनकी की हुई बिहारीकी सतमईकी टीकासे भली भांति विदित होता है। अवश्यही उममें वह कहीं कहीं भूले हैं, पर अबतक बिहारी-सतसईपर जो टोकाएं हुई हैं, प्रभुदयालुकी टीकाही उनमें मबसे उत्तम और अपने ढङ्गकी निराली है। हिन्दी व्याकरण विषयमें उनकी पहुंच बहुत बढ़-चढ़कर थी। यदि वह हिन्दीका व्याकरण लिम्बने पाते तो सफल मनोरथ होते। अगरेजीकी दो एक आरंभिक पुस्तक भी वह हिन्दी महित लिख गये हैं, जिनसे हिन्दीसे अगरेजी पढ़नेवालोंको महायता मिलती है। और भी कई पुस्तक हिन्दी-बङ्गवामीक पहारके लिये उन्होंने लिग्वी हैं। पांच माल तक हमारा उनका माथ था। पांच माल तक पण्डित अमृतलालजी, हम और पाण्डे प्रभुदयालुजी, एक साथ बैठकर हिन्दी-बङ्गवामीका सम्पादन करते थे । उस प्रिय मेल-मिलाप और उम अच्छे समयका चित्र अब भी आँग्वोंके सम्मुख है। संमारमें अच्छे दृश्य आंग्योंके मम्मुन्च बहुत काल तक नहीं रहने पाते। आज वह दृश्य नहीं, उमकी कहानी बाकी है। पिछले चार मालसे पण्डित प्रभुदयालुही हिन्दी बङ्गवासीक सम्पादक थे। उनमें हिन्दीके एक नामी लेखक होनेके कितनेही गुण थे। यदि वह जीते तो हिन्दीकी कितनीही सेवा कर सकते, पर इस देशका भान्यही ऐमा है, कि इसमें होनहार लोग बीचहीमें रह जाते हैं। अच्छे लोग ऊठ जाते हैं और उनका स्थान पूरा करनेवाले नये उत्पन्न नहीं होते। वह [ २७ ]