पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४४४

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आलोचना-प्रत्यालोचना व्याकरण-विचार पण्डित महावीरप्रसादजी द्विवेदीके “भापा और व्याकरण” वाले लेखकी आत्मारामने दस लेखोंमें आलोचना की है। 'भारतमित्र के पाठकोंने यह लेख बड़े चावसे पढ़े हैं। ढं ढ-ढंढकर बड़ी आरजूसे मंगाये हैं। जिनको न मिले, उनका तकाजा है कि वह लेख जल्द पुस्तकाकार छप, जिससे हम भी देख सके। ___ आलोचनाकी रीति अभी हिन्दीमें भलीभांति जारी नहीं हुई है और न लोग उसकी आवश्यकताहीको ठीक ठीक समझे हैं। इससे बहुत लोग आलोचना देखकर घबरा जाते हैं और बहुतोंको वह बहुत ही अप्रिय लगती है। यहां तक कि जो लोग स्वयं इस मैदानमें कदम बढ़ाते हैं, अपनी आलोचना होते देखकर वही तुर्शरू हो जाते हैं । इससे हिन्दीमें आलोचना करना भिड़के छत्तको छेड़ लेना है। छेड़नेवालेको चाहिये कि बहुतसी भिड़ोंके डङ्क सहनेके लिये प्रस्तुत रहे। ___एक बार हमारे एक कृपालुने किसी एक छोटीसी पोथीकी एक छोटी- सी कवितामें कुछ दोष दिखाया था। 'भारतमित्र' में एक सज्जनने उसका उत्तर देकर आलोचकको होश दिलाया कि आपकी आलोचना ठीक नहीं। आप उस लेखको पढ़कर बेताब हो गये। उसके उत्तरमें फिर कुछ लिखा और फिर कुछ सुना। उन्हींके किसी एक मित्रने उन्हें खबर दी कि वह पोथी 'भारतमित्र' सम्पादककी लिखी हुई है, आपने [ ४२७ ]