पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४४५

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गुप्त-निबन्धावली अालोचना-प्रत्यालोचन उसपर छेड़-छाड़कर अच्छा न किया। कृपालुजीने झट एक माफीनामा लिखा कि मुझे मालूम न था, वह आपकी बनाई पोथी है, नहीं तो मैं कभी ऐसा अनुचित काम न करता। यहांसे लिखा गया, पोथी मित्रकी हो या शत्रुकी-अपनेकी हो या बेगानेकी, आलोचना उसकी न्यायसे होनी चाहिये। यह तो कोई बात नहीं कि मित्रकी हो तो उसकी प्रशंसा की जाय और शत्रुकी हो तो निन्दा । इतनी अनुदारता लेकर साहित्यके मैदानमें कभी आगे न बढ़ना चाहिये। ऐसी दुर्दशा हिन्दीमें आलो- चनाकी है । * ____एक लड़केने एक दिन अपनी मासे कहा-'मा मुझे कोई न मारे तो मैं सबको मार आऊं'। ठीक यही दशा हिन्दीके कुछ आलोचकोंकी है। वह समझते हैं कि हमें सबकी आलोचना करनेका अधिकार मिल गया है और हमारी आलोचना कोई करे तो हमारे भाई-बन्धु जाति-धम्मकी, भाई-बिरादरीकी दुहाई देते हुए चारों ओरसे लट्ठ लेकर सहायताके लिये आ धमक और विद्यासे नहीं तो उसे लट्ठसे सीधा करदं। आत्माराम पर भी वही बीती। वह गरीब, लठैतोंके दलमें घिर गया। पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदो स्वयं बड़े भारी आलोचक होनेका दावा रखते हैं। आत्मारामने तो आलोचनाके केवल दस लेखही लिखे हैं, द्विवेदीजीने बड़ी-बड़ी पोथियां बनाके डालदी हैं । लाला सीतारामकी पोथियोंकी आप बहुत कुछ आलोचना कर चुके हैं और किये जाते हैं, यहां तक कि उन आलोचनाओंकी आप पोथियां तक छपवा चुके हैं। केवल इतनाही नहीं, संस्कृतके स्वर्गीय पण्डितोंकी भी आलोचना आपने की

  • जिस पुस्तकका उल्लेख किया गया है, वह 'खिलौना' नामकी पुस्तक थी

और उसकी आलोचना द्विवेदीने की थी। पुस्तक गुप्तजीकी लिखी हुई थी सही किन्तु उसपर उनका नाम नहीं छपा था। द्विवेदीजीको सावधान करने वाले उनके और गुप्तजीके, दोनोंके मित्र पण्डित श्रीधरजी पाठक थे। सम्पादक। [ ४२८ ]